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संस्कृति की सीमा
रहती है और जब साधक अपनी साधना के द्वारा साध्यता की चरम कोटि को छू लेता है, तब उसके जीवन में निवृत्ति स्वतः ही आ जाती है । अशुभ से शुभ और अन्ततः शुभ से शुद्ध पर पहुँचना ही संस्कृति का चरम परिपाक है । मेरे विचार में भारतीय समाज को स्वस्थता प्रदान करने के लिए ब्राह्मण और श्रमण दोनों की आवश्यकता रही है और अन्ततः भविष्य में भी दोनों की आवश्यकता रहेगी । आवश्यकता है, केवल दोनों के दृष्टिकोण में सन्तुलन स्थापित करने की और समन्वय साधने की । वस्तुतः यही भारतीय संस्कृति है ।
संस्कृति क्या है ? इस सम्बन्ध में भले ही एक निश्चयात्मक व्याख्या और परिभाषा न दी जा सके, पर यह सत्य है, कि संस्कृति मानव-जीवन का एक ऐसा अनिवार्य तत्व है, जिसके अभाव में मानव-जीवन में किसी प्रकार की प्रगति नहीं हो सकती । संस्कृति की एक निश्चयात्मक परिभाषा स्थिर न होने पर भी समय-समय पर अनेक विद्वानों ने संस्कृति की परिभाषा देने का प्रयत्न अवश्य किया है । एक विद्वान का कथन है, कि "संसार भर में जो भी सर्वोत्तम बातें जानी गई हैं अथवा कही गई हैं, उनसे अपने आपको परिचित करना ही संस्कृति है ।" एक दूसरी परिभाषा में यह कहा गया है, कि. “संस्कृति शारीरिक अथवा मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण , दृढ़ीकरण, प्रकटीकरण अथवा विकास करना है । यह मन, आचार एवं रुचि की परिष्कृति एवं विशुद्धि है ।" संस्कृति के सम्बन्ध में इन परिभाषाओं में जो कुछ कहा गया है, उस सबका सार यही है, कि शारीरिक मानसिक और बौद्धिक सभी प्रकार के विकास एवं परिष्कार को संस्कृति कहा जा सकता है । आज के कुछ लोग हिन्दू संस्कृति, मुस्लिम संस्कृति और ईसाई संस्कृति की बात करते हैं । मेरे विचार में यह सब संस्कृति हो सकती हैं, किन्तु यह सब कुछ संस्कृति का सम्पूर्ण अंग नहीं माना जाता जा सकता । भारत के जन-जीवन की संस्कृति का रूप सामाजिक एवं सामूहिक रहा है और उसका विकास भी धीरे-धीरे हुआ है । इतिहास के कुछ विद्वान यह भी दावा करते हैं, कि भारतीय संस्कृति का प्रारम्भ आर्यों के आगमन के साथ हुआ था । किन्तु यह विचार समीचीन नहीं कहा जा सकता । क्योंकि जिन्होंने 'हड़प्पा' और 'मोहनजोदड़ो' की सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन किया है, वे इस तथ्य को स्वीकार करते हैं, कि तथाकथित एवं तथाप्रचारित आर्यों के आगमन से पूर्व भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति बहुत ऊँची उठ चुकी थी ।
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