Book Title: Samaj aur Sanskruti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 255
________________ समाज और संस्कृति विश्व को कुछ भी देने के योग्य नहीं रहा । आज के नवीन विश्व को यदि भारत से कुछ पाना है, तो वह प्राचीन भारत से ही प्राप्त कर सकता है । प्राचीन भारत के उपनिषद्, आगम और त्रिपिटक आज भी इस राह भूली दुनिया को बहुत कुछ प्रकाश दे सकते हैं । आज के विश्व की पीड़ाओं का आध्यात्मिक निदान यह है, कि अभिनव मनुष्य अतिभोगी हो गया है । वह अपनी रोटी दूसरों के साथ बाँट कर नहीं खाना चाहता । उसे हर हालत में पूरी रोटी चाहिए, भले ही उसे भूख आधी रोटी की ही क्यों न हो । मेरा अपना विचार यह है, कि भारतीय संस्कृति में जो रूढ़िवादिता आ गई है, यदि उस रूढ़िवाद को दूर किया जा सके, तो भारत के पास आज भी दूसरों को देने के लिए बहुत कुछ शेष बचा रह सकता है । विश्व की भावी एकता की भूमिका, भारत की सामासिक संस्कृति ही हो सकती है । जिस प्रकार भारत ने किसी भी धर्म का दलन किए बिना, अपने यहाँ धार्मिक एकता स्थापित की, जिस प्रकार भारत ने किसी भी जाति की विशेषता नष्ट किए बिना, सभी जातियों को एक संस्कृति के सूत्र में आबद्ध किया, उसी प्रकार भारतीय संस्कृति के उदार विचार इतने विराट एवं विशाल रहे हैं, कि उसमें संसार के सभी विचारों का समाहित हो जाना असम्भव नहीं है । ऋषभदेव से लेकर राम तक और राम से लेकर वर्तमान में गाँधी-युग तक भारतीय संस्कृति सतत गतिशील रही है । यह ठीक है, कि बीच-बीच में उसमें कहीं रुकावट भी अवश्य प्रतीत होती है, किन्तु वह रुकावट उसके गन्तव्य पथ को बदल नहीं सकी । रुकावट आ जाना एक अलग चीज है और पथ को छोड़ कर भटक जाना एक अलग चीज है । हजारों और लाखों वर्षों की इस भारतीय प्राचीन संस्कृति में वह कौन तत्व है, जो इसे अनुप्राणित और अनुप्रेरित करता रहा है ? यह एक विकट प्रश्न है और यह एक पेचीदा सवाल है । मेरे विचार में, कोई ऐसा तत्व अवश्य होना चाहिए, जो युग-युग में विभिन्न धाराओं को मोड़ देकर उसकी एक विशाल और विराट धारा बनाता रहा हो । प्रत्येक संस्कृति का और प्रत्येक सभ्यता का अपना एक प्राण-तत्व होता है, जिसके आधार पर वह संस्कृति और सभ्यता तन कर खड़ी रहती है और संसार २४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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