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समाज और संस्कृति
हो और शील-सम्पन्न भी हो । यदि उसके जीवन में उक्त दोनों तत्वों में से एक भी तत्व का अभाव रहता है, तो वह जीवन आदर्श जीवन नहीं रहता । आदर्श जीवन वही है,जिसमें श्रुत अर्थात् अध्ययन एवं ज्ञान भी हो और साथ ही शील अर्थात् सदाचार भी हो । श्रुत और शील के समन्वय से ही, वस्तुतः मनुष्य का जीवन सुखमय एवं शान्तिमय बनता है । यदि मनुष्य के जीवन में श्रुत का अर्थात् ज्ञान का प्रकाश तो हो, किन्तु उसमें शील की सुरभि न हो, तो वह जीवन, श्रेष्ठ जीवन नहीं कहा
जा सकता । इसके विपरीत यदि किसी मनुष्य के जीवन में शील तो हो, *शील की सुरभि उसके जीवन में महकती हो, किन्तु उसमें श्रुत एवं ज्ञान का प्रकाश न हो, तब भी वह जीवन एक अधूरा जीवन कहलाता है, एक एकाङ्गी जीवन कहलाता है । जीवन एकाङ्गी नहीं होना चाहिए । भारतीय संस्कृति में एकाङ्गी जीवन को आदर्श जीवन नहीं कहा गया है । अनेकाङ्गी जीवन ही वस्तुतः सच्चा जीवन है । यह अनेकाङ्गता श्रुत और शील के समन्वय से ही आ सकती है । ज्ञान और क्रिया तथा विचार
और आचार दोनों की परिपूर्णता ही जीवन की सम्पूर्णता है ।। . भारतीय संस्कृति में विचार और आचार को तथा ज्ञान और क्रिया को जीवन-विकास के लिए आवश्यक तत्व माना गया है । दार्शनिक जगत में एक प्रश्न प्रस्तुत किया जाता है, कि धर्म और दर्शन-इन दोनों में से जीवन-विकास के लिए कौन सा तत्व परमावश्यक है । पाश्चात्य दर्शन में जिसे Religion और Philosophy कहा जाता है, भारतीय परम्परा में उसके लिए प्रायः धर्म और दर्शन का प्रयोग किया जाता है । परन्तु मेरे अपने विचार में धर्म शब्द का अर्थ-Religion से कहीं अधिक व्यापक एवं गम्भीर है । इसी प्रकार दर्शन शब्द का अर्थ_Philosophy से कहीं अधिक व्यापक और गम्भीर है । पाश्चात्य संस्कृति में धर्म की धारा अलग बहती रही और दर्शन की धारा अलग प्रवाहित होती रही । परन्तु भारतीय संस्कृति में धर्म और दर्शन का यह अलगाव एवं बिलगाव स्वीकृत नहीं है । भारत का धर्म और दर्शन का यह अलगाव एवं बिलगाव स्वीकृत नहीं है । भारत का धर्म दर्शन-विहीन नहीं हो सकता, और भारत का दर्शन, धर्म-विकल नहीं हो सकता । धर्म और दर्शन के लिए भारतीय संस्कृति में बहुविध और बहुमुखी विचार किया गया है । मानव-जीवन को विकसित एवं प्रगतिशील बनाने के लिए, श्रद्धा और तर्क दोनों के समान विकास की आवश्यकता है । श्रद्धा की उपेक्षा करके केवल,
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