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समाज और संस्कृति
आकर खड़ा हो गया है । मुख - कमल, कर-कमल, चरण-कमल और हृदय-कमल । भारतीय संस्कृति ने सम्पूर्ण मानव शरीर को कमलमय बना दिया है । नेत्र को भी कमल कहा गया है । कमल भारतीय संस्कृति में और भारतीय साहित्य में इतना अधिक परिव्याप्त हो चुका है, कि उसे जीवन से अलग नहीं किया जा सकता । साहित्य, संस्कृति और जीवन में कमल इतना व्यापक है, कि वह हमारे आध्यात्मिक दृष्टिकोण में भी प्रवेश कर गया है । महाश्रमण महावीर ने अपने एक प्रवचन में कहा है, कि अध्यात्म साधक को संसार में इस प्रकार रहना चाहिए, जिस प्रकार सरोवर में कमल रहता है । कमल जल में रहता है, कीचड़ में पैदा होता है, पर उस कीचड़ अथवा जल से वह लिप्त नहीं होता । संसार में रहते हुए भी, संसार के संकल्पों और विकल्पों की माया से विमुक्त रहना, यही जीवन की सबसे बड़ी कला है । कमल के समान निर्लिप्त रहने वाला व्यक्ति, फिर भले ही वह कहीं पर भी क्यों न रहता हो, उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता । गीता में श्रीकृष्ण ने भी यही बात कही है, कि अर्जुन ! तुम संसार में उसी प्रकार अनासक्त रहो, जिस प्रकार जल में कमल रहता है । इस प्रकार कमल हमारे जीवन में इतना ओत-प्रोत हो चुका है, कि जीवन से उसे अलग नहीं किया जा सकता । भारतीय संस्कृति में शरीर को भी कमल कहा गया है, और मानव मन को भी कमल कहा गया है । हमारे प्राचीन साहित्य में पद्मासन और कमलासन जैसे शब्दों का प्रयोग भी उपलब्ध होता है । जीवन में कमल से बहुत कुछ प्रेरणा हमें प्राप्त होती है । यही कारण है, कि कमल हमारे जीवन में इतना परिव्याप्त हो चुका है, कि उसे जीवन से अलग नहीं किया जा सका । जो व्यक्ति संसार में कमल बन कर रहता है, उसे किसी प्रकार का परिताप नहीं रहता । कमल के आदर्श की उपासना करने वाला व्यक्ति भी कमल के समान ही स्वच्छ और पावन बन जाता है ।
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मैं आपसे यह कह चुका हूँ, कि प्रकाश और कमल भारतीय संस्कृति के दो मुख्य तत्व हैं । जीवन पथ को आलोकित करने के लिए प्रकाश की नितान्त आवश्यकता रहती है । किन्तु जीवन को सुरभित बनाने के लिए, कमल की उससे भी कहीं अधिक बड़ी आवश्यकता रहती है । कमल के जीवन की सबसे बड़ी और सबसे मुख्य विशेषता है, मनोमोहक सुगन्ध । जिस कमल में अथवा जिस कुसुम में सुन्दर सुगन्ध नहीं होती,
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