Book Title: Samaj aur Sanskruti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 232
________________ भारतीय संस्कृति में अहिंसा उसका जन-जीवन में न कुछ महत्व होता है और न कुछ गौरव ही हो पाता है । कल्पना कीजिए, किसी फूल में रूप भी हो, सौन्दर्य भी हो, पर सुरभि न हो, तो वह जन-मन के लिए ग्राह्य नहीं हो सकता । वस्तुतः वही जीवन धन्य है, जो प्रकाश के समान जगमग करता है और कुसुम के समान सुरभित रहता है । __भगवान महावीर ने 'स्थानांग सूत्र' में चार प्रकार के पुष्पों का वर्णन किया है—एक पुष वह है, जिसमें रूप एवं सौन्दर्य तो होता है, परन्तु सुरभि नहीं रहती । दूसरा पुष्प वह है, जिसमें सुरभि तो होती है, पर रूप और सौन्दर्य नहीं रहता । तीसरा पुष्प वह होता है, जिसमें अद्भुत रूप भी होता है और अद्भुत सुरभि भी रहती है । चौथे प्रकार का पुष्प वह है, जिसमें न सौन्दर्य होता है और न सुरभि-सुगन्ध ही होती है । उदाहरण के लिए हम टेसू के फूल को लें । उसमें रूप, सौन्दर्य और आकर्षण तो रहता है, परन्तु उसमें सुगन्ध नहीं होती । वकुल-पुष्प को लीजिए, उसमें मादक सुगन्ध का भण्डार भरा रहता है । अपनी सुरभि और सुगन्ध से वह दूर-दूर के भ्रमरों को आकर्षित करता रहता है और दूरस्थ मनुष्य के मन को भी वह मुग्ध कर लेता है, किन्तु जैसे ही मनुष्य उसके समीप पहुँचता है, उसके रूप को देखकर वह मुग्ध नहीं हो पाता । जपापुष्प को लीजिए, उसमें रूप और सौन्दर्य दोनों का समन्वय हो जाता है । गुलाब के फूल का रूप भी अद्भुत होता है, वह देखने वाले के चित्त को आकर्षित करता है और साथ ही उसमें सुरभि और सुगन्ध भी अपरिमित होती है । चौथा पुष्प आक का है, जिसमें न सुन्दरता का अधिवास है और न सुरभि का निवास । वह न देखने में सुन्दर लगता है और न सूंघने में । इस प्रकार का पुष्प जन-मन को कभी ग्राह्य नहीं हो सकता । इसी प्रकार भगवान महावीर ने मानव-समाज के मनुष्यों का चार भागों में वर्गीकरण किया है-एक मनुष्य वह है, जो श्रुत-सम्पन्न तो है, किन्तु शील-सम्पन्न नहीं है । दूसरा मनुष्य वह है--जो शील-सम्पन्न है, किन्तु श्रुत-सम्पन्न नहीं है । तीसरा मनुष्य वह है--जो श्रुत-सम्पन्न भी है और शील-सम्पन्न भी है । चौथे प्रकार का मनुष्य वह है-जो न श्रुत-सम्पन्न है और न शील-सम्पन्न ही । मानव-समाज का यह वर्गीकरण मनोवैज्ञानिक आधार पर किया गया है । इसका रहस्य यही है, कि मानव-समाज में वही मनुष्य सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, जो श्रुत-सम्पन्न भी २२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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