Book Title: Samaj aur Sanskruti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 210
________________ कर्म की शक्ति और उसका स्वरूप आवृत होने के कारण अविकसित रहती है और आत्म बल द्वारा कर्म के आवरण को दूर कर देने पर उस शक्ति का विकास किया जा सकता है । विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच कर आत्मा परमात्मा - स्वरूप को उपलब्ध कर लेता है । आत्मा किस प्रकार कर्मों से आवृत होता है और वह किस प्रकार उससे विमुक्त होता है, यह सब कुछ आपको कर्म - शास्त्र के गम्भीर अध्ययन से परिज्ञात हो सकता है । व्यवहार में कर्मवाद मानव जीवन के दैनिक व्यवहार में कर्मवाद कितना उपयोगी है, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है । कर्म शास्त्र के पण्डितों ने अपने - अपने युग में इस समस्या पर विचार एवं विमर्श किया है । हम अपने दैनिक व्यवहार में प्रतिदिन देखते हैं एवं अनुभव करते हैं, कि जीवन - रूप गगन में कभी सुख के सुहावने बादल आते हैं और कभी दुःख की घनघोर काली घटाएँ छा जाती हैं । प्रतीत होता है, कि यह जीवन विघ्न, बाधा, दुःख और विविध प्रकार के क्लेशों से भरा पड़ा है । इनके आने पर हम घबरा जाते हैं और हमारी बुद्धि अस्थिर हो जाती है । मानव-जीवन की वह घड़ी कितनी विकट होती है, जब कि एक ओर मनुष्य को उसकी बाहरी प्रतिकूल परिस्थिति परेशान करती है और दूसरी ओर इसके हृदय की व्याकुलता बढ़ जाती है । इस प्रकार की स्थिति में ज्ञानी एवं पण्डित - जन भी अपने वास्तविक मार्ग से भटक जाते हैं । हताश एवं निराश होकर वे अपने दुःख, कष्ट एवं क्लेश के लिए दूसरे को कोसने लगते हैं, उसको जो केवल बाह्य निमित्त है। मूल उपादान को भूल कर उनकी दृष्टि बाह्य निमित्त पर जा पहुँचती है । इस प्रकार के विशेष प्रसंग पर वस्तुतः कर्मशास्त्र ही हमारे गन्तव्य पथ को आलोकित कर सकता है और पथ- च्युत आत्मा को पुनः सन्मार्ग पर ला सकता है । कर्म - शास्त्र बतलाता है, कि आत्मा अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है । सुख और दुःख का मूल कारण अपना कर्म ही है । वृक्ष का मूल कारण जैसे बीज है, वैसे ही मनुष्य के भौतिक जीवन का कारण इसका अपना कर्म ही होता है । सुख-दुःख के इस कार्य कारण भाव को समझाकर कर्मवाद मनुष्य को आकुलता एवं व्याकुलता के गहन गर्त से निकाल कर - Jain Education International For Private & Personal Use Only २०१ www.jainelibrary.org

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