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भारतीय दर्शन की समन्वय-परम्परा
से यह कह रहा था, कि हमारे दर्शन, हमारे धर्म और हमारी संस्कृति के सम्बन्ध में जो कुछ विदेशी विद्वानों ने कहा है, उसे आँख मूंद कर स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है । आप अपनी बुद्धि की तुला पर तोल कर ही उसे ग्रहण करने का अथवा छोड़ने का प्रयत्न करें, अन्यथा बहुत-सा अन्ध-विश्वास आप ग्रहण कर लेंगे ।
प्राचीन काल में भारतीय दर्शन उदार और विशाल दृष्टिकोण का रहा है, क्योंकि वह सत्य का अनुसंधान करने के लिए चला था । सत्य-शोधक के लिए आवश्यक है, कि वह अपने दृष्टिकोण को व्यापक और विशाल रखे । जहाँ भी सत्य हो, उसे ग्रहण करने की भावना रखे, और जो कुछ असत्य है, उसे छोड़ने का साहस भी उसमें होना चाहिए । सत्य के उपासक के लिए किसी के मत का खण्डन करना आवश्यक नहीं है, खण्डन और मण्डन दोनों ही सत्य से दूर रहने वाले बौद्धिक द्वन्द्व हैं । दूसरे के खण्डन करने के लिए अपने मण्डन की आवश्यकता रहती है और फिर अपने मण्डन के लिए दूसरे का खण्डन आवश्यक हो जाता है । सत्य की उपलब्धि से खण्डन का किसी प्रकार सम्बन्ध नहीं है, खण्डन में दूसरे के प्रति घृणा और उपेक्षा का भाव रहता है । मैं इस बात को चुनौती के साथ कह सकता हूँ, कि सत्य को पाने का पथ खण्डन और मण्डन से अति दूर है । दुर्भाग्य है, कि मध्यकाल में आकर भारतीय दर्शन में खण्डन-मण्डन की परम्परा चल पड़ी, अपना मण्डन करना और दूसरों का खण्डन करना, यही एक मात्र उनका लक्ष्य बन गया था । प्रारम्भ में खण्डन दूसरों का किया जाता था, किन्तु आगे चल कर यह खण्डन की परम्परा सर्व-ग्रासी बन गई और एक ही पंथ और एक ही परम्परा के लोग भी परस्पर एक दूसरे का खण्डन करने लगे । शंकर के अद्वैत का खण्डन क्रिया, मध्व ने और मध्व के द्वैतवाद का खण्डन किया, शंकर के शिष्यों ने । शंकर मत का रामानुज ने खण्डन किया और रामानुज मत का शंकर मत ने खण्डन किया । मीमांसक ने नैयायिक का खण्डन किया और नैयायिक ने मीमांसक का खण्डन किया । इस प्रकार जिस वैदिक परम्परा ने जैन और बौद्ध के विरुद्ध मोर्चा खड़ा किया था, वे आपस में ही लड़ने लगे । बौद्धों में भी हीनयान और महायान को लेकर एक भयंकर खण्डन-मण्डन हुआ । महायान ने हीनयान को मिटा देना चाहा, तो हीनयान ने भी महायान को कुचल देने का संकल्प किया । बुद्ध के भक्त वैदिक और जैनों से लड़ते-लड़ते आपस में ही लड़ मरे ।
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