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समाज और संस्कृति
इसी प्रकार जिन के उपासक जैन भी जिनकी साधना का एक मात्र लक्ष्य है, राग और द्वेष से दूर होना, वे भी सग और द्वेष के झंझावात में उलझ गये । श्वेताम्बर और दिगम्बरों के संघर्ष कम भयंकर नहीं थे । यह बड़ी लज्जा की बात थी, कि अनेकान्त के मानने वाले परस्पर में ही लड़ पड़े और अपना मण्डन तथा दूसरों का खण्डन करने लगे । याद रखिए, यदि आप दूसरे के घर में आग लगाते हैं, तो वह आग फैलकर आपके घर में आ सकती है । यह कभी मत समझिए कि हम दूसरों का खण्डन करके अपना मण्डन कर सकेंगे । प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक पंथ काँच के महल में बैठा हुआ है, इसलिए उसे दूसरे पर पत्थर मारकर अपने को सुरक्षित समझने की भूल नहीं करनी चाहिए । खेद है, कि भारत का अध्यात्मवादी दर्शन अपने अध्यात्मवाद को भूलकर पंथवादी बनकर लड़ने को तैयार हो गया । इस खण्डन के युग को मैं भारतीय दर्शन का कलंक समझता हूँ । भारतीय दर्शन का उचल रूप खण्डन एवं मण्डन में नहीं है, वह है उसके समन्वय में और वह है, उसके अनेकान्तवादी दृष्टिकोण में । समन्वय ही भारतीय दर्शन का वास्तविक स्वरूप है और यही उसका मूल आधार है।"
संस्कृत विश्वविद्यालय, काशी दिनांक २६-१-१६६१
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