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समाज और संस्कृति
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उनसे यह प्रमाणित होता है, कि यदि विश्व का कोई सार्वभौमिक धर्म बन सकता है, तो वह अहिंसा ही है । अहिंसा की आवश्यकता किस को नहीं है ? व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और समग्र विश्व इन सबको अहिंसा की नितान्त आवश्यकता है । अहिंसा के अभाव में न व्यक्ति जीवित रह सकता है, न समाज विकास कर सकता है, न राष्ट्र उठ सकता है और न विश्व ही अपने अस्तित्व को अक्षुण्ण रख सकता है । राष्ट्रपिता गाँधी ने राजनीति के क्षेत्र में अहिंसा का प्रयोग करके विश्व को एक नयी दिशा का बोध-पाठ दिया है । निश्चय ही आज के इस अणु-युग में अणु-शक्ति की भयंकरता से संत्रस्त समग्र मानव-परिवार की सुरक्षा के लिए अहिंसा की जितनी आवश्यकता आज है, उतनी पहले कभी नहीं रही । सर्व-ग्रासी विनाश से बचने के लिए आज के युग में अहिंसा की नितान्त आवश्यकता है । परन्तु उस अहिंसा की जो जीवन में बोल सके, जीवन में झांक सके और जीवन में चल सके, उस अहिंसा की नहीं, जो किसी भी सम्प्रदाय विशेष के पोथी-पन्नों में बन्द पड़ी हो । अहिंसा मानव-जीवन के लिए एक मंगलमय वर-दान है । वह जीवन के प्राण-प्राण में रहने वाला एक अमर तत्व है । अहिंसा वाद-विवाद का नहीं, आचरण का सिद्धान्त है । यह तर्क का नहीं, व्यवहार का सिद्धान्त है । अहिंसा की आराधना आत्मा की आराधना है ।।
अनेकान्त क्या है ? वस्तुतः विचारात्मक अहिंसा ही अनेकान्त है । बौद्धिक अहिंसा ही, अनेकान्त है । उस अनेकान्त दृष्टि को जिस भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है, वही स्याद्वाद है । अनेकान्त दृष्टि है, और स्याद्वाद उस दृष्टि की अभिव्यक्ति की पद्धति है । विचार के क्षेत्र में अनेकान्त इतना व्यापक है, कि विश्व के समग्र दर्शनों का इसमें समावेश हो जाता है । क्योंकि जितने वचन व्यवहार हैं, उतने ही नय हैं, सम्यक् नयों का समूह ही वस्तुतः अनेकान्त है । अनेकान्त का अर्थ है—जिसमें किसी एक अन्त का, धर्म विशेष का अथवा एक पक्ष विशेष का आग्रह न हो । सामान्य भाषा में विचारों के अनाग्रह को 'ही वास्तव में अनेकान्त कहा जाता है । धर्म, दर्शन और संस्कृति प्रत्येक क्षेत्र में अनेकान्त सिद्धान्त का साम्राज्य है । जीवन और जगत के जितने भी व्यवहार हैं, वे सब अनेकान्त-मूलक ही हैं । अनेकान्त के बिना जीवन-जगत का व्यवहार नहीं चल सकता । जीवन के प्रत्येक पहलू को समझने के लिए अनेकान्त की आवश्यकता है । जैन धर्म समभाव की साधना का
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