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भारतीय दर्शन की समन्वय- परम्परा
विभागों में विभाजित करता हूँ – भौतिकवादी और अध्यात्मवादी । एक चार्वाक दर्शन को छोड़कर भारत के अन्य सभी दर्शन अध्यात्मवादी हैं, क्योंकि वे आत्मा की सत्ता में विश्वास रखते हैं । आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में भले ही सब एक मत न हों, किन्तु उसकी सत्ता से किसी को इन्कार नहीं है । क्षणिकवादी बौद्ध दर्शन भी आत्मा की सत्ता को स्वीकार करता है । जैन दर्शन भी आत्मा को अमर, अजर और एक शाश्वत तत्व स्वीकार करता है । जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का न कभी जन्म हुआ है और न कभी उसका मरण ही होता है । न्याय और वैशेषिक दर्शन आत्मा की अमरता में विश्वास रखते हैं, किन्तु आत्मा को वे कूटस्थ नित्य और विभु मानते हैं । सांख्यदर्शन और योग दर्शन चेतन की सत्ता को स्वीकार करते हैं, उसे नित्य और विभु मानते हैं, मीमांसा दर्शन भी आत्मा की अमरता को स्वीकार करता है । वेदान्त दर्शन में तो आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन अद्वैत की चरम सीमा पर पहुँच गया है । वेदान्त के अनुसार यह समग्र सृष्टि ब्रह्मामय है । कहीं पर भी ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कुछ है ही नहीं । जैन दर्शन सांख्य दर्शन द्वैतवादी हैं । द्वैतवादी का अर्थ है —— जड़ और चेतन, प्रकृति और पुरुष तथा जीव और अजीव दो तत्वों को स्वीकार करने वाला दर्शन । इस प्रकार एक चार्वाक को छोड़कर भारत के शेष सभी अध्यात्मवादी दर्शनों में आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन भिन्न-भिन्न होते हुए भी उसकी नित्यता और अमरता पर सभी को आस्था है ।
भारतीय दर्शन के अनुसार यह एक सिद्धान्त है, कि जो आत्मा की सत्ता को स्वीकार करता है, उसके लिए यह आवश्यक है, कि वह कर्म की सत्ता को भी स्वीकार करे । चार्वाक को छोड़कर शेष सभी भारतीय दर्शन कर्म और उसके फल को स्वीकार करते हैं । इसका अर्थ यह है, कि शुभ कर्म का फल शुभ होता है और अशुभ कर्म का फल अशुभ होता है, शुभ कर्म से पुण्य और अशुभ कर्म से पाप होता है । जीव जैसा कर्म करता है, उसी के अनुसार उसका जीवन अच्छा अथवा बुरा बनता रहता है । कर्म के अनुसार ही हम सुख और दुःख का अनुभव करते हैं, किन्तु यह निश्चित है, कि जो कर्म का कर्ता होता है, वही कर्म-फल का भोक्ता भी होता है । भारत के सभी अध्यात्मवादी दर्शन कर्म के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं । जैन दर्शन ने कर्म के सिद्धान्त की जो व्याख्या प्रस्तुत की है, वह अन्य सभी दर्शनों से स्पष्ट और विशद
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