Book Title: Samaj aur Sanskruti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 207
________________ समाज और संस्कृति देता है । जो तीर हाथ से निकल चुका है, वह वापिस लौटकर हाथ में नहीं आएगा । परन्तु निश्चय-दृष्टि से जिस प्रकार सामने से वेग के साथ आता हुआ दूसरा तीर पहले वाले से टकराकर उसके वेग को रोक देता है, या उसकी दिशा को ही बदल देता है, ठीक उसी प्रकार कर्म भी शुभ एवं अशुभ परिणामों से कम और अधिक शक्ति वाले हो जाते हैं, दूसरे रूप में परिवर्तित हो जाते हैं और कभी-कभी निकल भी हो जाते हैं । जैन-दर्शन में कर्म की विविध अवस्थाओं का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है । जैन-दर्शन के अनुसार कर्म की उन विविध अवस्थाओं में एक निकाचित अवस्था ही ऐसी है, जिसमें कृत-कर्म का फल अवश्य ही प्राप्त होता है । जैन-दर्शन के कर्मवाद का मन्तव्य है, कि आत्मा अपने प्रयत्न-विशेष से अन्य विभिन्न कार्मिक अवस्थाओं में परिवर्तन कर सकता है । प्रकृति और प्रदेश, स्थिति और अनुभाग में परिवर्तन कर सकता है, एक कर्म को दूसरे कर्म के रूप में भी बदल सकता है । दीर्घ स्थिति वाले कर्म को ह्रस्व स्थिति में और तीव्र रस वाले कर्म को मन्द रस में बदल सकता है । बहु दलिक कर्म को अल्प दलिक भी बना सकता है । जैन-दर्शन के कर्मवाद के अनुसार कुछ कर्मों का वेदन (फल) विपाक से न होकर प्रदेशों से ही हो जाता है । कर्मवाद के सम्बन्ध में उक्त कथन इस तथ्य को सिद्ध करता है, कि कर्मवाद आत्मा को पुरुषार्थ से विमुख नहीं करता, बल्कि पुरुषार्थ के लिए और अधिक प्रेरित करता है । पुरुषार्थ और प्रयत्न करने पर भी जब फल की उपलब्धि न हो, तब वहाँ कर्म की प्रबलता समझकर धैर्य रखना चाहिए और यह विचार करना चाहिए, कि मेरा पुरुषार्थ कर्म की प्रबलता के कारण भले ही आज सफल न हुआ हो, किन्तु कालान्तर में एवं जन्मान्तर में वह अवश्य ही सफल होगा । कभी-कभी जीवन में कुछ ऐसी विचित्र स्थिति आ जाती है, कि मनुष्य किसी वस्तु की उपलब्धि के लिए प्रयत्न तो करता है, किन्तु उसे उसमें सफलता नहीं मिलती । फलतः वह हताश और निराश होकर बैठ जाता है। किन्तु जीवन की यह स्थिति बड़ी ही विचित्र एवं विडम्बना पूर्ण है । क्योंकि वह मनुष्य यह विचार करता है, कि मेरा पुरुषार्थ कुछ नहीं कर सकता, जो कुछ भाग्य में लिखा है, वह होकर ही रहेगा । इस प्रकार की विषम स्थिति में साधक को कर्मवाद के सन्दर्भ में यह विचार करना चाहिए, कि आज मेरा जो कर्म मुझे अच्छा या बुरा फल दे रहा है, आखिर वह कर्म भी तो मेरे अपने पुरुषार्थ से ही बना है । - - - - १६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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