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समाज और संस्कृति
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चेतन का सम्बन्ध पाकर जड़ कर्म स्वयं ही अपना फल देता है और आत्मा उसका फल भोगता है । जैन-दर्शन का यह सिद्धान्त बौद्ध दर्शन में भी स्वीकार किया गया है, जिसका स्पष्ट उल्लेख हमें राजा मिलिन्द और स्थविर नागसेन के सम्वाद में उपलब्ध होता है । जैन-दर्शन के अनुसार किसी भी कर्म के फल भोग के लिए, कर्म और उसके करने वाले के अतिरिक्त किसी तीसरे व्यक्ति की आवश्यकता नहीं है । क्योंकि कर्म करते समय ही जीव के परिणाम के अनुसार एक इस प्रकार का संस्कार पड़ जाता है, जिससे प्रेरित होकर जीव अपने कर्म का फल स्वयं भोग लेता है और कर्म भी चेतन से सम्बद्ध होकर अपने फल को अपने आप ही प्रकट कर देता है । कुछ दार्शनिक यह भी मानते हैं, कि काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ इन पाँच समवायों के मिलने से जीव कर्म-फल भोगता है । इन सब तर्कों से यह सिद्ध हो जाता है, कि जीव के संयोग से कर्म अपना फल स्वतः ही देता है । शुभ और अशुभ कर्म
जैन दर्शन के अनुसार कर्म-वर्गणा के पुद्गल परमाणु लोक में सर्वत्र भरे हैं । उनमें शुभत्व और अशुभत्व का भेद नहीं है, फिर कर्म पुद्गल परमाणुओं में शुभत्व एवं अशुभत्व का भेद कैसे पैदा हो जाता है ? इसका उत्तर यह है, कि—जीव अपने शुभ और अशुभ परिणामों के अनुसार कर्म-वर्गणा के दलिकों को शुभ एवं अशुभ रूप में परिणत करता हुआ ही ग्रहण करता है । इस प्रकार जीव के परिणाम एवं विचार ही, कर्मों की शुभता एवं अशुभता के कारण हैं । इसका अर्थ यह है, कि कर्म-पुद्गल स्वयं अपने आप में शुभ और अशुभ नहीं होता, बल्कि जीव का परिणाम ही उसे शुभ एवं अशुभ बनाता है । दूसरा कारण है, आश्रय का स्वभाव । कर्म के आश्रय भूत संसारी जीव का भी यह वैभाविक स्वभाव है, कि वह कर्मों को शुभ एवं अशुभ रूप में परिणत करके ही ग्रहण करता है । इसी प्रकार कर्मों में भी कुछ ऐसी योग्यता रहती है, कि वे शुभ एवं अशुभ परिणाम-सहित जीव से ग्रहण किए जाकर ही, शुभ एवं अशुभ रूप में परिणत होते रहते हैं, बदलते रहते हैं एवं परिवर्तित होते रहते हैं । पुद्गल शुभ से अशुभ रूप में और अशुभ से शुभ रूप में कैसे परिणत हो जाते हैं ? इसका धान इस प्रकार से किया गया है
प्रकृति, स्थिति और अनुभाग की विचित्रता तथा प्रदेशों के अल्प
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