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कर्म की शक्ति और उसका स्वरूप
जैन-दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में कर्म बन्ध के कारण माया, अविद्या, अज्ञान और वासना को माना गया है, परन्तु शब्द भेद और प्रक्रिया-भेद होने पर भी मूल भावनाओं में अधिक मौलिक भेद नहीं है । न्याय एवं वैशेषिक दर्शन में मिथ्या ज्ञान को, योग दर्शन में प्रकृति और पुरुष के संयोग को, वेदान्त में अविद्या एवं अज्ञान को तथा बौद्ध दर्शन में वासना को कर्म-बन्ध का कारण माना गया है । मोक्ष के साधन
भारतीय दर्शन में जिस प्रकार कर्म-बन्ध और कर्म-बन्ध के कारण माने गए हैं, उसी प्रकार मुक्ति और मुक्ति के उपाय भी माने गये हैं । मुक्ति, मोक्ष और निर्वाण प्रायः समान अर्थों में प्रयुक्त होते हैं । बन्धन से विपरीत दशा को ही मुक्ति एवं मोक्ष कहा जाता है । यह ठीक है, कि जीव के साथ कर्म का प्रतिक्षण बन्ध होता है । पुरातन कर्म अपना फल देकर आत्मा से अलग हो जाते हैं और नये कर्म प्रतिसमय बँधते रहते हैं । परन्तु इसका फलितार्थ यह नहीं निकाल लेना चाहिए, कि आत्मा कभी कर्मों से मुक्त होगा ही नहीं । जैसे स्वर्ण और मिट्टी परस्पर मिलकर एकमेक हो जाते हैं, किन्तु ताप आदि की प्रक्रिया के द्वारा जिस प्रकार मिट्टी को अलग करके शुद्ध स्वर्ण को अलग कर लिया जाता है, उसी प्रकार अध्यात्म साधना से कर्म-फल से छूट कर शुद्ध बुद्ध एवं मुक्त हो सकता है । यदि एक बार कर्म-विमुक्त हो जाता है, तो फिर कभी वह कर्म-बद्ध नहीं होता । क्योंकि कर्म-बन्ध के कारणीभूत साधनों का सर्वथा अभाव हो जाता है । जैसे बीज के सर्वथा जल जाने पर उससे फिर अंकुर. की उत्पत्ति नहीं हो सकती, वैसे ही कर्म रूपी बीज के जल जाने पर उससे संसार-रूप अंकुर उत्पन्न नहीं होता है । इससे यह सिद्ध हो जाता है, कि जो आत्मा एक दिन बद्ध हुआ है, वह आत्मा एक दिन कर्मों से विमुक्त भी हो सकता है ।
प्रश्न होता है, कि वर्म-बन्ध से छूटने के उपाय क्या हैं ? उक्त प्रश्न के समाधान में जैन-दर्शन मोक्ष एवं मुक्ति के तीन साधन एवं उपाय बतलाता है—सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । कहीं पर यह भी कहा गया है, कि 'ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्षः' ज्ञान और क्रिया से मोक्ष की उपलब्धि होती है । ज्ञान और क्रिया को मोक्ष का हेतु मानने का यह अर्थ नहीं है, कि सम्यग्दर्शन को मानने से इन्कार कर दिया हो ।
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