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समाज और संस्कृति
सकता है । कर्म के अस्तित्व में एक यह भी तर्क दिया जाता है, कि दान आदि क्रिया फलवती होती है, क्योंकि वह चेतन के द्वारा की जाती है । जो क्रिया चेतन द्वारा की जाती है, वह अवश्यमेव फलवती होती है, जैसे कृषि आदि । दान आदि क्रिया भी चेतन-कृत होने से फलवती होनी चाहिए । दान आदि क्रिया का फल शुभ कर्म के अतिरिक्त दूसरा नहीं हो सकता । जिस प्रकार अध्ययन क्रिया का फल ज्ञान-संचय होता है, उसी प्रकार कर्म के फल सुख-दुःख आदि ही होते हैं । कर्म की मूर्तता
जैन दर्शन की परिभाषा के अनुसार द्रव्य कर्म को मूर्त माना गया है । जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श यह चार गुण हों, वह पदार्थ मूर्त होता है । पुद्गल में ये चारों गुण विद्यमान हैं । अतः छह द्रव्यों में पुद्गल को मूर्त द्रव्य माना गया है । जैन-दर्शन के अनुसार द्रव्य कर्म पुद्गल जन्य है, अतः मूर्त है । कारण यदि मूर्त है, तो उसका कार्य भी मूर्त ही होता है । जैसे मिट्टी एक मूर्त उपादान कारण है, तो उसका कार्य घट भी मूर्त ही होता है । कारण के अनुसार ही कार्य होता है । कारण मूर्त है, तो कार्य भी मूर्त होगा और यदि कारण अमूर्त है, तो उसका कार्य भी अमूर्त ही होगा ।
___ कारण से जैसे कार्य का अनुमान होता है, उसी प्रकार कार्य से भी कारण का अनुमान होता है । इस सिद्धान्त के अनुसार शरीर आदि कार्य मूर्त है, तो उनका कारण कर्म भी मूर्त ही होना चाहिए । ज्ञान अमूर्त है, तो उसका उपादान कारण आत्मा भी अमूर्त है । दोनों ही पद्धति से कर्म का मूर्तत्व सिद्ध है ।
यहाँ यह शंका की जा सकती है, कि जिस प्रकार शरीर आदि कर्म के कार्य हैं, उसी प्रकार सुख-दुःख भी कर्म के ही कार्य हैं, पर वे अमूर्त हैं । फिर आपका कार्य-कारण सम्बन्धी उक्त नियम स्थिर कैसे रह सकता है ? उक्त शंका का समाधान यही है, कि सुख-दुःख आदि आत्मा के धर्म हैं और आत्मा ही उनका उपादान कारण है । कर्म तो सुख-दुःख में निमित्त कारण ही होता है, उपादान कारण नहीं । अतः उक्त नियम में किसी भी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती । कर्म की मूर्तता सिद्ध करने के लिए कुछ तर्क इस प्रकार दिए जा सकते हैं—कर्म मूर्त है, क्योंकि उसके सम्बन्ध से सुख-दुःख आदि का ज्ञान होता है, जैसे भोजन
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