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कर्म की शक्ति और उसका स्वरूप
दूसरा रोगी । एक सुखी है, दूसरा दुखी । एक सुन्दर है, दूसरा कुरूप । अधिक क्या, एक ही माता के उदर से उत्पन्न हुए और एक ही परिस्थिति में पले हुए दो बालकों में से भी एक धनी हो जाता है, दूसरा निर्धन रह जाता है । एक मूर्ख रह जाता है दूसरा विद्वान हो जाता है । यह विषमता, यह विचित्रता और यह असमानता अकारण नहीं हो सकती । उसका कुछ न कुछ कारण अवश्य होना चाहिए और वह कारण, दूसरा कुछ नहीं, कर्म ही है । जिस प्रकार बीज के बिना अंकुर नहीं हो सकता, उसी प्रकार कर्म के बिना सुख-दुःख भी नहीं हो सकते । संसार में सुख और दुःख प्रत्यक्ष देखा जाता है । दो व्यक्ति, जो कि समान स्थिति में रहते हैं, उनमें भी देखा जाता है, कि एक सुखी है और दूसरा दुखी रहता है । आखिर, इस सुख-दुःख का कारण कोई तो अवश्य होना ही चाहिए और वह कारण कर्म ही हो सकता है ।
प्रश्न किया जा सकता है, कि सुख-दुःख का कारण तो इस लोक में प्रत्यक्ष ही है, उसके लिए कर्म मानने की आवश्यकता ही क्या ? जिसके पास वस्त्र नहीं है, उसे वस्त्र मिल जाने पर सुखानुभूति होती है । जिसके पास भोजन नहीं है, उसे भोजन मिल जाने पर सुख का अनुभव होता है । इसी प्रकार मान और सम्मान भी सुख के कारण बन जाते हैं । इसके विपरीत भौतिक साधनों के अभाव में मनुष्य दुःख का अनुभव करने लगता है, अतः भौतिक वस्तुओं के सद्भाव से सुख और असद्भाव से दुःख प्रत्यक्ष देखा जाता है । फिर उस सुख-दुःख के कारण रूप में अदृश्य-भूत कर्म की कल्पना क्यों की जाए ? इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार से किया गया है कि सुख एवं दुःख के बाह्य दृष्ट साधनों से भी परे हमें सुख-दुःख के कारणों की खोज इसलिए करनी पड़ती है, कि सुख-दुःख की समान सामग्री प्राप्त होने पर भी मनुष्यों के सुख-दुःख में अन्तर देखा जाता है । एक व्यक्ति सुख के कारण प्राप्त करने पर भी सुखी नहीं रहता और दूसरा व्यक्ति दुःख के साधन मिलने पर भी सुखी रहता है । अतः बाह्य वस्तुओं के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा किसी आन्तरिक कारण से ही इसका समाधान किया जा सकता है । एक व्यक्ति को जीवन में सुख के कारण प्राप्त होते हैं और दूसरे को दुःख के कारण । इसका भी कोई नियामक होना चाहिए और वह कर्म ही हो
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