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कर्म की शक्ति और उसका स्वरूप
भारतीय दर्शन में कर्म और उसके फल के सम्बन्ध में बड़ी गम्भीरता से विचार किया गया है । कर्म क्या है ? और उसका फल कैसे मिलता है तथा किस कर्म का क्या फल मिलता है ? इस विषय में भारतीय दर्शन ने और भारत के तत्वदर्शी चिन्तकों ने जितना गम्भीर विचार किया है, उतना और वैसा पाश्चात्य दर्शन में नहीं किया गया है । भारतीय दर्शन में भी जैन-परम्परा ने कर्म और और उसके स्वरूप के सम्बन्ध में जो गहन और विशाल चिन्तन प्रस्तुत किया है, वह विश्व के दार्शनिक इतिहास में वस्तुतः अद्भुत एवं विलक्षण है । ... कर्म, कर्म का फल, और कर्म करने वाला इन तीनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । जैन दर्शन के अनुसार जो कर्म का कर्ता होता है, वही कर्मफल का उपभोक्ता भी होता है । जो जीव जैसा कर्म करता है, उसके अनुसार वह शुभ अथवा अशुभ कर्म का फल प्राप्त करता है, संसार की विचित्रता का आधार यदि कोई तत्व है, तो वह कर्म ही है ।
मुझसे एक प्रश्न पूछा गया है, कि आत्मा बलवान् है, अथवा कर्म बलवान् है । इस प्रश्न के उत्तर में प्राचीन साहित्य में बहुत कुछ कहा गया है, बहुत कुछ विचार किया गया है । बात यह है, कि कर्म एक जड़ पुद्गल है । उसमें अनन्त शक्ति है । दूसरी ओर आत्मा भी एक चेतन तत्त्व है और उसमें भी अनन्त शक्ति है । यदि कर्म में शक्ति न होती, तो संसार के ये नानाविध विचित्र खेल भी न होते । कर्म में शक्ति है, तभी तो वह जीव को नाना गतियों में और विविध योनियों में परिभ्रमण कराता है । कर्म की शक्ति से इन्कार नहीं किया जा सकता, किन्तु मूल प्रश्न यह है, कि कर्म का कर्ता है आत्मा, आत्मा स्वयं अपने किए हुए कर्मों से बद्ध हो जाता है । उस बन्धन से मुक्त होने की शक्ति भी आत्मा में ही है । कर्म-पुद्गल चैतन्य शक्ति का सर्वथा और सर्वदा घात नहीं कर सकते । अनन्त गगन में मेघों की कितनी भी घनघोर घटा छा जाएँ, फिर भी वे सूर्य की प्रभा का सर्वथा विलोप नहीं कर सकतीं । बादलों में सूर्य को आच्छादित करने की शक्ति तो है, किन्तु उसके आलोक को सर्वथा विलुप्त करने की शक्ति उन बादलों में नहीं है । यही बात आत्मा के सम्बन्ध में है । कर्म में आत्मा के सहज
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