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समाज और संस्कृति
यदि कर्म को आत्मा मान लिया जाए, तो फिर आत्मा को भी कर्म मानना पड़ेगा । इस प्रकार जीवन में अजीवत्व आ जाएगा और अजीवत्व में जीवत्व चला जाएगा । इस दृष्टि से जैन-दर्शन का यह कथन यथार्थ है, कि यह राग, यह द्वेष, यह मोह और यह अज्ञान न कभी मेरा था, और न कभी मेरा होगा । आत्मा के अतिरिक्त संसार में अन्य जो भी कुछ है, उसका परमाणु मात्र भी मेरा अपना नहीं है । अज्ञानी आत्मा यह समझता है, कि मैं कर्म का कर्ता हूँ और मैं कर्म का भोक्ता हूँ । व्यवहारनय से यह कथन हो सकता है, किन्तु निश्चय-नय से आत्मा न कर्म का कर्ता है और न कर्म का भोक्ता है । कर्तृत्व और भोक्तृत्व आत्मा के धर्म नहीं हैं, क्योंकि परम शुद्धनय से आत्मा न कर्ता है, न भोक्ता है, वह तो एक मात्र ज्ञायक है, ज्ञायक स्वभाव है और ज्ञाता मात्र है । ज्ञान आत्मा का अपना निज स्वभाव है । उसमें जो कुछ मलिनता आती है, वह विजातीय तत्व के संयोग से ही आती है । विजातीय तत्व के संयोग के विलय हो जाने पर ज्ञान स्वच्छ, निर्मल और पवित्र हो जाता है । सावरण ज्ञान मंलिन होता है और निरावरण ज्ञान निर्मल और स्वच्छ होता है । ज्ञान की निर्मलता और स्वच्छता तभी सम्भव है, जब कि राग और द्वेष के विकल्पों का आत्मा में से सर्वथा अभाव हो जाए । निर्विकल्प और निर्द्वन्द्व स्थिति ही, आत्मा का अपना सहज स्वभाव है । रागी आत्मा प्रिय वस्तु पर राग करता है, और अप्रिय वस्तु पर द्वेष करता है, पर यथार्थ दृष्टिकोण से देखा जाए, तो पदार्थ अपने आप में न प्रिय है, न अप्रिय है । हमारे मन की रागात्मक और द्वेषात्मक मनोवृत्ति ही किसी भी वस्तु को प्रिय और अप्रिय बनाती है । जब तक किसी भी प्रकार का विकल्प, जो कि पर संयोग-जन्य है, आत्मा में विद्यमान है, तब तक स्वस्वरूप की उपलब्धि हो नहीं सकती है । ज्ञानात्मक भगवान आत्मा को समझने के लिए निर्मल और स्वच्छ ज्ञान की आवश्यकता है । ज्ञान में यदि निर्मलता का अभाव है, तो उससे वस्तु का यथार्थ-बोध भी नहीं हो सकता । जैन-दर्शन की दृष्टि से ज्ञान और आत्मा भिन्न नहीं, अभिन्न ही हैं । जान से भिन्न आत्मा अन्य कुछ भी नहीं है, ज्ञान-गुण में अन्य सब गुणों का समावेश हो जाता है ।
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