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मानव जीवन की सफलता
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पथ से विचलित कर सकता है । स्वर्ग का प्रलोभन और नरक का भय उसके जीवन को मोड़ नहीं दे सकता । इस अपेक्षा से मैं आपसे यह कह रहा था, कि धार्मिक होना अथवा धर्मशील बनना उतना आसान नहीं है, जितना समझ लिया गया है । छापा और तिलक लगाने से, अथवा किसी वेष-विशेष को धारण करने मात्र से व्यक्ति धार्मिक नहीं बन जाता है । धार्मिक बनने के लिए सबसे बड़ी शर्त एक ही है, नीति और सदाचार में विश्वास रखना । केवल विश्वास रखना ही पर्याप्त नहीं होता, बल्कि उस विश्वास के अनुसार अपने जीवन को नीतिमय एवं सदाचारमय बनाना भी परम आवश्यक है । जो व्यक्ति नीतिमान् है, सदाचारवान् है, उसका बलवान् होना बुरा नहीं, बल्कि अच्छा है । इस प्रकार के व्यक्ति के जीवन से घर में भी शान्ति रहती है और बाहर में भी शान्ति रहती है । जो स्वयं शान्त है, वही दूसरे को शान्ति दे सकता है, जो स्वयं सुखी है वही दूसरे को सुखी बना सकता है । जिसके स्वयं के पास प्रकाश नहीं है, वह दूसरे के जीवन के अन्धकार को कैसे दूर कर सकता है ? धर्मशील व्यक्ति के पास अपने स्वयं के जीवन का प्रकाश होता है, इसलिए वह दूसरों के जीवन के अन्धकार को दूर करने का निरन्तर प्रयत्न करता रहता है । धार्मिक व्यक्ति का जीवन समाज और राष्ट्र के लिए अभिशाप नहीं, एक सुन्दर वरदान होता है । इसी आधार पर यह कहा गया है, कि धार्मिक का बलवान् होना अच्छा है ।
धार्मिक और अधर्मशील व्यक्ति के जीवन का क्रम इससे भिन्न होता है । जिसके जीवन में मिथ्याचार, पापाचार और दुराचार की कारी-कजरारी मेघ घटाएँ छायी रहती हैं, उस व्यक्ति का जीवन शान्त और सुखी नहीं रह सकता । जिसे आत्म-परिबोध नहीं होता, अथवा जिसे आत्मविवेक नहीं होता, जिसको. यह भी भान नहीं है, कि मैं कौन हूँ और मेरी कितनी शक्ति है, वह व्यक्ति दूसरे का विकास तो क्या करेगा, स्वयं अपना भी विकास नहीं कर सकता । अन्धे के सामने कितना भी सुन्दर दर्पण रख दिया जाए, किन्तु जिसमें स्वयं देखने की शक्ति नहीं है, तो उसको दर्पण अपने में प्रतिबिम्बित उसके प्रतिबिम्ब को कैसे दिखला सकता है. ? यही स्थिति उस व्यक्ति की होती है, जिसे स्वयं अपनी आत्मा का बोध नहीं है, वह व्यक्ति दूसरे को आत्मबोध कैसे करा सकता है, हजार प्रयत्न करने पर भी नहीं करा सकता ।
जो व्यक्ति वासना-आसक्त है, वह अपने स्वरूप को समझ नहीं
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