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जैन धर्म अतिवादी नहीं है
साधक का हृदय इतना निर्मल हो चुका है, कि उसमें न राग रहा है
और न द्वेष रहा है, तो उसके लिए भी तपस्या की साधना का कोई विशेष प्रयोजन शेष नहीं रहता । उन्हीं साधकों का जीवन तेली के बैल के समान रहता है, उन्होंने अपनी मन की गाँठों को नहीं खोला है, राग
और द्वेष की ग्रन्थि को नहीं तोड़ा है, वे कितनी भी तपस्या करें और कितने भी नियमों का पालन करें, किन्तु उनके जीवन में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आ सकता । जिसके मन में राग-द्वेष की गाँठ है, वह भले ही गृहस्थ हो अथवा साधु हो, वह अपनी साधना में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता । पचास वर्ष के बाद भी वह वहीं खड़ा मिलता है, जहाँ से उसने अपनी यात्रा प्रारम्भ की थी । वे यात्रा नहीं करते, बल्कि तेली के बैल के समान घूमते हैं, चक्कर काटते हैं और इधर से उधर भटकते हैं ।
मोह और क्षोभ जब तक दूर नहीं होते हैं, तब तक साधना कैसे सफल हो सकती है ? मोह-मदिरा का पान करके यह आत्मा अपने स्वरूप को भूल जाता है । आत्मा का अपने स्वरूप को भूल जाना ही संसार है । मोह में एक ऐसी शक्ति है, जिससे आत्मा को यह परिबोध नहीं होने पाता, कि मैं क्या हूँ और मेरी शक्ति क्या है ? मैं अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा हूँ अथवा उससे पीछे हट रहा हूँ । इस प्रकार की बोध-दशा आत्मा की विलुप्त हो जाती है । कहा जाता है, कि एक बार बनारस के कुछ पण्डों ने विचार किया, कि आज आश्विन मास की पूर्णिमा है । अतः गंगा-स्नान यहाँ पर नहीं, तीर्थराज प्रयाग पर करना चाहिए । उन्होंने अपने इस विचार के अनुसार कार्यक्रम बनाया और गंगा के घाट पर पहुँच कर भंग का घोंटा लगाकर सबने भंग पी और नाव पर सवार हो गये । नाव से यात्रा करके ही प्रयागराज पहुँचने का उनका विचार था । नाव पर सवार तो वे हो गये, किन्तु नाव का जो रस्सा तट पर के खूटे से बँधा था, उसे खोलने का ध्यान किसी को न रहा । वे लोग नाव में बैठे थे और नाव चला रहे थे, किन्तु नाव आगे न बढ़कर वहीं पर इधर-उधर गंगा की चंचल तरङ्गों पर थिरकती रही । रात्रि को जब चन्द्रमा का उदय हुआ, तब उन्होंने सोचा, आज बड़ा निर्मल सूर्य का उदय हुआ है । सूर्य का प्रकाश अत्यन्त स्वच्छ और सुखद है । अब हम प्रयागराज आ पहुंचे हैं । इस तीर्थराज पर अब हम सब संगम
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