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मनुष्य स्वयं दिव्य है
स्वच्छ रखने के लिए उसमें शुद्ध विचार की झाडू लगाते रहिए । यदि आप ऐसा न करेंगे, तो निश्चय ही, यह मन इतना अपवित्र हो जाएगा, कि फिर इसे स्वच्छ और साफ करने के लिए आपको बड़ा कठोर परिश्रम करना पड़ेगा । इससे तो यही अच्छा है, कि आप प्रतिदिन इसे स्वच्छ और पवित्र बनाने का प्रयत्न करते रहें । मन की पवित्रता ही साधना का प्राण है ।
शरीर की स्वस्थता का प्रभाव और शरीर की अस्वस्थता का प्रभाव, यदि मन पर पड़ सकता है, तो फिर मन की स्वच्छता और अस्वच्छता का प्रभाव हमारे जीवन पर क्यों नहीं पड़ सकता ? अवश्य ही पड़ता है
और पड़ना भी चाहिए । क्योंकि हमारा जीवन वही है, जो कुछ हम सोचते हैं । अपने विचारों का प्रतिफल ही हमारा जीवन है । एक पाश्चात्य कवि ने कहा है कि-"As a man think in his heart, so is he.'' 'एक मनुष्य अपने हृदय में जैसा विचार करता है, वह वैसा ही बन जाता है । जिसके मन में राक्षसी भावना रहती है, वह राक्षस बन जाता है । जिसके मन में दैवी भावना रहती है, वह देव बन जाता है । देव और दानव अन्य कुछ नहीं हैं, हमारे अपने मन के अच्छे और बुरे विचार ही वस्तुतः देव और दानव हैं । राम भी हमारा मन ही है और रावण भी हमारा मन ही है । यूरोप के विख्यात दार्शनिक इमर्सन ने मानव-जीवन के सम्बन्ध में ठीक ही कहा है
“Allow the thought it may lead to choice; Allow the choice it may lead to an act; Allow the act it forms the habit; Continue the habit it shapes you character; Continue the character it shapes your destiny."
इमर्सन का कथन है, कि "विचारों को स्वतन्त्रता दीजिए, विचार कामनाओं का रूप पकड़ लेंगे । कामनाओं को स्वतन्त्रता दीजिए, वह कार्य में परिणत हो जायेंगी । कार्यों को स्वतन्त्रता दीजिए, वे आदत बन जायेंगे और हमारे जीवन की आदतें ही कुछ दिनों के बाद हमारा चरित्र बन जाती हैं । अन्त में वह चरित्र ही मनुष्य के भाग्य का निर्माण करता है ।" मैं आपसे जो कुछ कहना चाहता हूँ, वह यही है, कि हम अपने विचारों को शुभ और सुन्दर बनाने का प्रयत्न करें । यदि आप अपने
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