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मन ही साधना का केन्द्र-बिन्दु है
कि मेरी तकदीर का फैसला नवाब साहब तभी अच्छी तरह हो सकता है, जब कि दाढ़ी आपकी हो और हाथ मेरा हो । दाढ़ी भी आपकी और हाथ भी आपका तो मेरी तकदीर का फैसला कैसे हो सकता है ? कर्मशील व्यक्ति को अपने कर्म पर विश्वास होता है, वह सोचता है, कि जब मैं कर्म करता हूँ, तो उसका फल भी मुझे या मेरे साथी को अवश्य ही मिलेगा । परन्तु रजोगुणी व्यक्ति जो कुछ करता है, उसके व्यक्तिगत फल को छोड़ने के लिए वह तैयार नहीं होता । रजोगुणी व्यक्ति को जब तक उसके कर्म का फल नहीं मिल जाता है, तब तक वह हैरान, परेशान और बेचैन ही रहता है । रजोगुणी मन कभी शान्त होकर नहीं बैठता । चंचलता, असन्तोष और अशान्ति ही रजोगुणी मन का लक्षण है । रजोगुणी व्यक्ति कहता है-“कर्म तो अवश्य करूँगा, किन्तु उसके फल को भी मैं छोड़ नहीं सकता ।" रजोगुणी व्यक्ति के मन में फल की आसक्ति इतनी तीव्रतम होती है, कि वह कभी उसको शान्ति से और सुख से बैठने नहीं देती; इसलिए वह सदैव क्रिया-शील रहता है ।
तीसरा गुण है—सत्व गुण । वैसे तो प्रत्येक गुण पर लम्बी व्याख्या हो सकती है, किन्तु यहाँ पर संक्षेप में बतलाना ही मुझे अभीष्ट है । सत्वगुण की व्याख्या करते हुए कहा गया है, कि सत्वगुण प्रकाशक होता है, उल्लासमय एवं आनन्दमय होता है । तमोगुण स्थिति-शील है, रजोगुण गति-शील है और सत्वगुण प्रकाश-शील है । जिस व्यक्ति के मन में सत्वगुण की प्रधानता होती है, वह सदा प्रसन्न, प्रशान्त और सन्तुष्ट रहता है । भौतिक भोगों की आकांक्षा उसके मन में नहीं रहती । वह कर्म तो करता है, किन्तु कर्म के फल की अभिलाषा का उदय उसके मानसिक क्षितिज पर कभी होता ही नहीं । सत्व-शील व्यक्ति को भौतिकता में नहीं, आध्यात्मिकता में ही आनन्द आता है, क्योंकि उसका मन प्रशान्त और प्रसन्न रहता है । सत्व-शील व्यक्ति का मन उस सरोवर के समान शान्त रहता है, जिसमें एक भी तरंग नहीं उठ रही है और इसीलिए जिसमें प्रतिबिम्ब स्पष्ट प्रतीत होता है । सत्वगुण का अर्थ यह नहीं है, कि वह कर्म को ही जलाञ्जलि दे दे । कर्म तो वह करता है, किन्तु कर्म के फल की अभिलाषा वह नहीं करता । वह दान करता है, किन्तु दान के बदले में वह कुछ चाहता नहीं है । वह सेवा करता है, किन्तु सेवा के बदले में सत्कार की अभिलाषा उनके मन में नहीं उठती । वह
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