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मन ही साधना का केन्द्र - बिन्दु
रजोगुणी की मनोवृत्ति अपने कर्म के फल में इतनी आसक्त रहती है, कि वह अपने कर्म के फल को छोड़ने के लिए कभी तैयार नहीं होता । कल्पना कीजिए, रजोगुणी व्यक्ति अपने घर पर उस समय पहुँचा, जब कि तैयार किया हुआ भोजन समाप्त हो चुका हो । सहसा आने वाले किसी अतिथि को वह भोजन दे दिया गया हो, अथवा द्वार पर आए किसी भिखारी की झोली में डाल दिया गया हो, या फिर पत्नी की असावधानी के कारण इधर-उधर फिरने वाले कुत्ते-बिल्ली ने ही वह खा डाला ही । वह व्यक्ति जब घर पहुँचता है, और भोजन माँगने पर उसे भोजन नहीं मिलता, तब वह अपनी पत्नी को हजारों गालियाँ सुना डालता है । क्रोध के आवेग में वह यह भी कह डालता है, कि दिन भर घूम फिर कर कठोर परिश्रम करता हूँ मैं; और घर में बैठे मौज उड़ाते हो तुम । रजोगुणी व्यक्ति कहता है, जब मैं कर्म करता हूँ, तब उसका फल सबसे पहले मुझे ही मिलना चाहिए । रजोगुणी व्यक्ति यह नहीं सोचता कि मेरे कर्म का फल मेरी पत्नी को अथवा मेरे बच्चों को मिल गया, तो क्या ? मेरे कर्म का फल मेरे घर आए हुए मेहमान अथवा भिखारी को मिल गया है, तो क्या ? अथवा मेरे कर्म का फल किसी पशु-पक्षी को मिल गया है, तो क्या ? किसी को तो मिला है । परन्तु रजोगुणी व्यक्ति इस प्रकार सोच नहीं पाता, वह अपने कर्म - फल को छोड़ने के लिए कभी तैयार नहीं हो सकता । उसकी दृष्टि में परिजन और परिवार का तथा समाज और राष्ट्र का महत्त्व बाद में है, और पहले अपना है । रजोगुणी व्यक्ति जो चाहता है, अपने लिए चाहता है । धन और सम्पत्ति, वैभव और विलास तथा पूजा और प्रतिष्ठा के लिए वह तो कुछ भी श्रम करता है, इसका फल पहले वह अपने लिए चाहता है । उसका सिद्धान्त है, कि पहले मैं और फिर अन्य लोग । रजोगुणी व्यक्ति परिश्रम करता है, कर्म करता है, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है, परन्तु सब कुछ कर लेने पर उसका सारा फल वह स्वयं ही समेट लेना चाहता है । अपने कर्म के फल में वह दूसरे को भागीदार तभी बना सकता है, जब पहले स्वयं उसकी इच्छा या अभिलाषा की पूर्ति हो जाए, अन्यथा नहीं । रजोगुणी व्यक्ति का कर्म करने में तो विश्वास होता है, किन्तु उस कर्म के फल को बाँटकर उपभोग करने में उसका विश्वास नहीं होता ।
एक नवाब था । उसे दान देने का बहुत शौक था । वास्तविकता यह है, कि दान देने में उसे उतना रस नहीं था, जितना कि दान के
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