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ज्ञानमयो हि आत्मा
जैन-दर्शन में से आत्मा के वर्णन को निकाल दिया जाए, तो जैन दर्शन में अन्य कुछ भी शेष नहीं बचेगा । इस प्रकार जैन-दर्शन ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति आत्म-स्वरूप के प्रतिपादन में लगा दी है । अतः जैन-दर्शन और जैन-संस्कृति का प्रधान सिद्धान्त है-आत्म-स्वरूप का प्रतिपादन और आत्म-स्वरूप का विवेचन ।
आत्म-तत्व, ज्ञान-स्वरूप है । कुछ आचार्यों ने कहा है, कि आत्मा ज्ञानवान् है । इसका अर्थ यह रहा, कि आत्मा अलग है और ज्ञान अलग है । इसीलिए आत्मा ज्ञान नहीं, बल्कि ज्ञानवान है । इस कथन में द्वैतभाव की प्रतीति स्पष्ट होती है । इस कथन में ज्ञान अलग पड़ा रहता है और आत्मा अलग रहती है । जिस प्रकार आप कहते हैं, कि यह व्यक्ति धन वाला है, तो इसका अर्थ यह हुआ—व्यक्ति अलग है और धन अलग है । वह व्यक्ति धन को पाने से धन वाला हो गया और जब उसके पास धन नहीं रहेगा, तो धन वाला भी नहीं रहेगा । इस कथन में द्वैत-दृष्टि स्पष्ट रूप से झलकती है । जैन-दर्शन की भाषा में इस द्वैत-दृष्टि को व्यवहार नय कहा जाता है । निश्चय नय की भाषा में आत्मा ज्ञानवान है, ऐसा नहीं कहा जाता है, वहाँ तो यह कहा जाता है कि आत्मा ज्ञायक-स्वभाव है, आत्मा ज्ञाता है । इसका अर्थ यह हुआ कि—ज्ञान ही आत्मा है । जो कुछ ज्ञान है, वही आत्मा है और जो कुछ आत्मा है, वह ज्ञान ही है । यह शुद्ध निश्चय नय का कथन है । शुद्ध निश्चय नय की दृष्टि में आत्मा को ज्ञानवान नहीं कहा जाता, बल्कि ज्ञानस्वरूप ही कहा जाता है । भगवान महावीर ने 'आचारांग-सूत्र' में स्पष्ट रूप में प्रतिपादित किया है, कि “जे आया से विन्नाणे जे विन्नाणे से आया ।" इसका अभिप्राय यह है, कि जो आत्मा है, वही विज्ञान है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि आत्मा स्वयं ज्ञान-स्वरूप है । ज्ञान के बिना उसकी कोई स्थिति नहीं है । जैन दर्शन के महान दार्शनिक आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है.-"आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं, ज्ञानादन्यत् करोति किम् ?" आत्मा साक्षात् ज्ञान है, और ज्ञान ही साक्षात् आत्मा है । आत्मा ज्ञान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं करता है । आत्मा और ज्ञान दो नहीं, एक ही हैं । जब आत्मा ज्ञान को ही करता है. और ज्ञान के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं करता, तब इसका अर्थ यह होता है, कि एक ज्ञान-गुण में ही आत्मा के अन्य समस्त गुणों का समावेश कर लिया गया है ।
आप कहते हैं, कि हम कान के द्वारा शब्द सुनते हैं । तो मैं पूछता
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