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ज्ञानमयो हि आत्मा
है ? रस तो रस की जगह है. वह पदार्थ में है । आपने क्या काम किया ? आपने केवल उस रस का ज्ञान किया है । रस सदा स्थायी नहीं रहता । रस उत्पन्न होता है और नष्ट भी हो जाता है, पर रस का ज्ञान आप में शेष रह जाता है । जो कुछ पदार्थ आप खाते हैं, वह विभिन्न रूपों में परिवर्तित हो जाता है, मांस, मज्जा, अस्थि और अन्य सब धातु भोजन से ही बनती हैं । रस आपके पास नहीं रहता, केवल रस का ज्ञान ही आपके पास रह जाता है । रस आत्मा नहीं है, रस का जो ज्ञान है, वही आत्मा है । रस जड़ है और रस ज्ञान चैतन्य है । इसीलिए रस पुद्गल का धर्म है, वह आत्मा का धर्म नहीं है । रस-ज्ञान आत्मा का धर्म है ।
आपको सर्दी लगती है और कभी गर्मी लगती है । सर्दी आती है और लौट जाती है, गर्मी आती है और चली जाती है, पर सर्दी और गर्मी का ज्ञान, आपके पास बचा रह जाता है । कोई पदार्थ आपको मृदु लगता है और कोई पदार्थ आपको कठोर लगता है । आप कहते हैं यह बड़ा मृदु है और बड़ा कठोर है । यह क्या है ? स्पर्श है । स्पर्श सदा नहीं रहता, पर स्पर्श का ज्ञान बना रह जाता है । स्पर्श चला जाता है, पर आपकी अनुभूति के अन्दर स्पर्श का ज्ञान शेष बचा रह जाता है । आप कहते हैं, इस साल तो बड़ी गर्मी पड़ी, बड़ी सर्दी पड़ी और इतनी भयंकर सर्दी पड़ी, कि उसका ठिकाना नहीं रहा । वर्ष के वर्ष गुजर जाते हैं । महाकाल बीत जाता है और काल आपको काफी दूर ले जाता है, पर बात क्या है—वह आपके ज्ञान में अन्तर नहीं डाल पाता है । सर्दी और गर्मी का स्पर्श तो नहीं रहा आपके पास, पर सर्दी और गर्मी का ज्ञान आज भी आपके पास सुरक्षित है । यदि आपकी आयु सौ वर्ष की है, तो वर्षों तक भी उस स्पर्श का ज्ञान रहेगा । स्पर्श चला जाता है, पर स्पर्श का ज्ञान बचा रह जाता है । इसका अर्थ यह रहा, कि आत्मा स्वयं ज्ञानरूप है । आत्मा ज्ञान है और जो कुछ ज्ञान है, वही आत्मा है । ज्ञान से अलग आत्मा अन्य कुछ भी नहीं है । आपने देखा, कि पाँचों इन्द्रियों से आपको क्या मिला अथवा आपने क्या किया ? ज्ञान ही आपको मिला और ज्ञान ही आपने किया ।
जब आत्मा ज्ञान-स्वरूप है, तब आत्मा को निर्मल करने का अर्थ है, ज्ञान को निर्मल करना और ज्ञान को निर्मल करने का अर्थ है, आत्मा को निर्मल करना । शास्त्रों में इसीलिए कहा गया है, कि मानव ! तू
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