________________
'समाज और संस्कृति
की उलझनों को सुलझा सकते हैं और व्यक्ति की व्यक्तिगत भावनाओं एवं इच्छाओं का विश्लेषण करके उन्हें किसी प्रशस्त पथ पर केन्द्रित किया जा सकता है, जिससे उस व्यक्ति के जीवन का विकास और उत्थान आसानी के साथ किया जा सकता है । मन की विविध वृत्तियों का विश्लेषण करके, मन के अच्छे और बुरे संस्कारों को भली-भाँति जाना जा सकता है और फिर उन्हे मोड़ भी दिया जा सकता है । इस प्रकार मनोविज्ञान का अपने आपमें एक सुन्दर उपयोग हो सकता है ।
एक प्रश्न यहाँ पर यह भी किया जा सकता है, कि क्या हमारे प्राचीन साहित्य में मन के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा गया है ? इसके उत्तर में मैं यही कहूँगा, कि बहुत कुछ कहा गया है, आवश्यकता है, केवल उसे खोजने की । भगवान महावीर ने, तथागत बुद्ध ने मन की वृत्तियों के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा है और उनकी उस वाणी को आधार बनाकर उभय परम्परा के आचार्यों ने उक्त विषय पर विभिन्न ग्रन्थों को रचना भी की है । भारतीय दर्शन में जिसे योग-दर्शन कहा जाता है, वह वस्तुतः एक प्रकार का मनोविज्ञान ही है । यद्यपि आज का मनोविज्ञान और प्राचीन युग के योग-शास्त्र बहुत-सी बातों में मिलते नहीं हैं, फिर भी जीवन को संस्कारित करने के लिए जिन सिद्धान्तों का विश्लेषण योग-शास्त्र में किया गया है, आज के मनोविज्ञान में भी उनका सर्वथा अभाव नहीं है । फिर भी मैं यह कहूँगा, कि पतञ्जलि-कृत 'योग-शास्त्र' में मन की वृत्त्यियों का बड़ा ही सुन्दर विश्लेषण किया गया है । बौद्ध परम्परा का 'विशुद्धि-मार्ग' ग्रन्थ भी इसी विषय का एक अनुपम ग्रन्थ है । जैन परम्परा में आचार्य हरिभद्र ने एक नहीं, अनेक ग्रन्थों की रचना इसी विषय पर की है । आचार्य हरिभद्र के योग-ग्रन्थ भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से अत्यन्त सुन्दर हैं । इतना ही नहीं, उन ग्रन्थों में आचार्य ने जिस समन्वयात्मक दृष्टिकोण को अपनाया है, वह उनकी एक विशिष्ट और अनुपम देन है । आज का मनोविज्ञान एक विज्ञान है, जबकि प्राचीन युग का 'योग' विज्ञान न होकर एक शास्त्र था
और एक विशिष्ट दर्शन था । योग-शास्त्र में मन और इन्द्रियों को वश में करने के लिए अथवा उन्हें नियंत्रित करने के लिए अनेक प्रकार के साधनों का उल्लेख किया गया है । मेरे कहने का अभिप्राय यह नहीं है, कि प्राचीन युग में हमारे यहाँ पर मनोविज्ञान नहीं था, मेरे कहने का अभिप्राय यही है, कि प्राचीन योग-विद्या का आज के मनोविज्ञान के
-
- -
-
१६०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org