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समाज और संस्कृति
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है, वैसा ही रहेगा । पर गन्दे शब्द बोलने के कारण तुम्हारा मुख तो निश्चय ही अपवित्र हो गया है । जिस व्यक्ति में वाणी का संयम नहीं है, उसके मुख की शुद्धि कभी नहीं हो सकती । फिर वह कितना भी अपने मुख का प्रक्षालन क्यों न करता हो । मुख की शुद्धि जल से नहीं, मधुर वाणी से और प्रिय शब्दों से होती है ।" जब तक आन्तरिक शुद्धि नहीं होगी, तब तक वाणी मधुर नहीं हो सकती । बाह्य शुद्धि क्षणिक होती है, आन्तरिक शुद्धि वस्तुतः स्थायी रहती है । इस शरीर को हजार बार भी स्नान कराया जाय, तब भी यह गन्दा ही रहेगा । इस तन पर कितना भी चन्दन का लेप लगाया जाय, तब भी इसकी अपवित्रता दूर नहीं हो सकती।
मैं आपसे जीवन-विशुद्धि की बात कह रहा था । जीवन की विशुद्धि किस प्रकार होती है, इसके लिए शास्त्रकारों ने बहुत से साधन बतलाए हैं । उन साधनों में सर्वश्रेष्ठ साधन है, मन की विशुद्धि । मन की विशुद्धि के अभाव में तन की विशुद्धि का मूल्य नहीं है । मन की विशुद्धि प्रत्येक साधना में अपेक्षित है, फिर भले ही वह साधना गृहस्थ-जीवन की हो अथवा साधु-जीवन की हो । जीवन की आन्तरिक विशुद्धि के सम्बन्ध में वैदिक परम्परा में एक श्लोक बोला जाता है
“अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ।।" इसमें कहा गया है, कि कोई व्यक्ति तन से चाहे पवित्र हो अथवा अपवित्र हो, अथवा किसी भी अवस्था में क्यों न हो, जो व्यक्ति अपने मन में भगवान विष्णु का स्मरण करता है, वह अवश्य ही पवित्र है । क्योंकि प्रभु के स्मरण से जब उसका मन पवित्र हो चुका है, तब बाहर की पवित्रता और अपवित्रता से उसके जीवन पर किसी प्रकार प्रभाव नहीं पड़ सकता । साधना में मन की पवित्रता ही सबसे मुख्य है ।
जो बात वैदिक परम्परा के इस श्लोक में कही गयी है, वही बात जैन परम्परा में भी कही गई है । इसी प्रकार का एक दूसरा श्लोक जैन परम्परा में भी चिर-काल से प्रचलित है । उस श्लोक का पूर्वार्ध तो ज्यों का त्यों है, किन्तु उत्तरार्ध में कुछ परिवर्तन है
“अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः समरेत् परमात्मनं स बाह्यास्यन्तर शुचिः ।।" । आपने देखा, कि इस श्लोक का भी वही अभिप्राय है, जो पहले का
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