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मन ही साधना का केन्द्र-बिन्दु है
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की चौपाल में ही ठहरना पड़ा । जिस स्थान पर मैं ठहरा हुआ था, उसके समीप ही सामने एक कूप था । मैंने वहाँ देखा, कि एक व्यक्ति अपने लोटे को मिट्टी से बार-बार माँज रहा था, एक दो बार ही नहीं, पूरे सात बार उसने अपने लोटे को माँजा । जिस डोर से वह पानी भर रहा था, उसे भी इसी प्रकार माँजा और कुल्ला करने की बारी आई, तो फिर डोल के डोल उसने कुल्ला करने में लगा दिए । इसी बीच में एक दूसरे सज्जन वहाँ पर आए, उन्होंने अपने लोटे को एक बार माँजा
और कुल्ला करने बैठ गये । एक दो लोटे में ही उसने कुल्ला भी कर लिया और हाथ-मुँह भी धो लिया और फिर जब वह व्यक्ति वहाँ से चलने लगा, तो पहले व्यक्ति ने कहा-"क्या कुल्ला कर लिया ?" दूसरे व्यक्ति ने हाँ में उत्तर दिया, तो पहले व्यक्ति ने मुँह बना कर कहा—तुम्हारे जैसे व्यक्तियों ने ही धर्म को भ्रष्ट कर दिया है ? दूसरा व्यक्ति कुछ तर्क-शील था, बोला—क्यों ? पहले ने कहा कि- "इसलिए कि तुम लोग पूरी तरह शुद्धि नहीं करते ।" उसने पूछा-"पूरी तरह शुद्धि कैसे होती है ?" तब उस शुद्धिवादी व्यक्ति ने कहा-"कम से कम चार-पाँच डोल से तो कुल्ला करना ही चाहिए, तभी मुख की शुद्धि हो सकती है ।" फिर तो तर्क-शील व्यक्ति ने कूप से चार-पाँच डोल खींचे और बहुत देर तक कुल्ला करता रहा । फिर उसने उस शुद्धिवादी व्यक्ति से मधुर मुस्कान के साथ पूछा- “कहिए, अब तो मेरे मुख की शुद्धि हो गयी न ?" शुद्धिवादी बोला-“हाँ अब तुम्हारा मुख शुद्ध हो गया है ।" जब वह तर्क-शील व्यक्ति वहाँ से चला, तो उसने चलते समय शुद्धिवादी पर कुल्ला कर दिया, यह देखकर वह बिगड़ गया और बोला-“तू बड़ा बदतमीज है ।" जो कुछ उसके मुख में आया वह बकता ही रहा । वह तर्क-शील व्यक्ति उसकी गन्दी से गन्दी गाली को सुनकर भी मुस्कराता रहा, पर बोला नहीं । जब गाली देने वाला व्यक्ति गाली दे-दे कर थक गया और चुप हो गया, तब उसने कहा-आपने तो कहा था, कि तेरे मुख की शुद्धि हो गयी है, जब कि मेरे मुख की, शुद्धि हो चुकी और अपने शुद्ध मुख का शुद्ध जल आपके ऊपर डाल दिया, तब आपको बिगडने की क्या आवश्यकता थी ? इसका अर्थ तो यही हआ. कि मेरे मुख की शुद्धि नहीं हुई, तभी आप मेरे ऊपर बिगड़ पड़े हैं ।" वह शुद्धिवादी व्यक्ति कुछ झेंप-सा गया । उस तर्कवादी व्यक्ति ने कहा-"मेरा मुख न शुद्ध है, न अशुद्ध है, वह तो जैसा था, वैसा ही है और जैसा
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