________________
मन ही साधना केन्द्र-बिन्दु है
मनुष्य जीवन में किस प्रकार की साधना करनी चाहिए, इस सम्बन्ध में आपने बहुत कुछ सुना और पढ़ा है । पर जो कुछ पढ़ा और सुना है, उसे जीवन में कैसे उड़ेला जाए ? साधना के क्षेत्र का सबसे बड़ा प्रश्न यही है । अध्ययन और मनन सार्थक तभी हो सकता है, जब कि जीवन में उसका उपयोग और प्रयोग किया जाए, अन्यथा ज्ञान मस्तिष्क का केवल भार ही रह जाता है । भारतीय संस्कृति में और भारतीय दर्शन में ज्ञान और क्रिया के सन्तुलन पर एवं समन्वय पर अत्यधिक भार दिया गया है । मैं किसी विशेष परम्परा की बात नहीं कहता, सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में समन्वय और संतुलन को जो गौरवपूर्ण स्थान मिला है, वह अपने आपमें अद्वितीय और अनुपम है । ज्ञान और क्रिया में संतुलन एवं समन्वय के विशिष्ट पुरस्कर्ता यद्यपि श्रमण भगवान महावीर थे, किन्तु उनके समकालीन बुद्ध ने भी उनकी इस उदात्त भावना को अपनाया तथा उत्तरकाल के समस्त भारतीय साहित्य में उसकी प्रतिध्वनि होने लगी थी । संतुलन और समन्वय के इस सिद्धान्त को भगवान महावीर ने अनेकान्त एवं स्याद्वाद की संज्ञा दी, बुद्ध ने उसे विभज्यवाद कहा और वेदान्त के प्राचीन आचार्यों ने उसे समन्वय कहा । मेरे कहने का अभिप्राय केवल इतना ही है, कि प्रत्येक परम्परा के महापुरुष ने ज्ञान और क्रिया में संतुलन साधने का प्रयत्न किया है । इस विवाद में पड़ने की आवश्यकता नहीं है, कि किस परम्परा ने इसे कितना महत्व दिया । यहाँ पर विचारणीय इतना ही है, कि संतुलन के बिना हमारा जीवन किसी भी प्रकार की साधना में सार्थक और सफल नहीं हो सकता । जो कुछ सीखा है, उसे आचरण में उतरने दो और आचरण में उसे ही उतारो जो कुछ सीखा है । ज्ञान और क्रिया के संतुलन के अभाव में हमारी साधना पंगु रहेगी, उसमें शक्ति और बल का आधान न हो सकेगा ।
मैं आपसे यह कह रहा था, कि मनुष्य का जीवन धर्म और अध्यात्म - साधना के बिना निष्फल है । यदि कोई व्यक्ति यह सोचता है, कि जीवन भोग के लिए है, तो मेरे विचार में वह व्यक्ति नास्तिक है, फिर भले ही वह किसी भी परम्परा से सम्बन्धित क्यों न हो । एक बात आप ध्यान में रखें, और वह यह है, कि जीवन की विशुद्धि को ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
१५५ www.jainelibrary.org