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समाज और संस्कृति
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राजर्षि नमि ने अनुभव किया कि, मैं सबमें रह कर भी अकेला हूँ । इसलिए एकत्व ही जीवन का वास्तविक स्वरूप है । अनेकत्व वास्तविक नहीं है, कल्पना-जन्य है । सुख अनेकत्व में नहीं है । यदि अनेकता में सुख होता, तो आज मैं दुःखी क्यों होता ? सुख यदि कहीं है, तो वह एकत्व में ही है, जीवन की निर्लिप्त अवस्था में ही है । हाथ के अनेक कंकण ही परस्पर संघर्ष-रत होकर ध्वनित होते हैं, एक कंकड़ ध्वनित नहीं होता । राजर्षि नमि के मन के इस जागरण ने उसे संसार के बन्धनों से विमुक्त कर दिया । विशाल साम्राज्य छोड़कर उन्होंने अध्यात्म-साधना प्रारम्भ कर दी । सब कुछ समेटने वाले व्यक्ति ने एक दम सब कुछ छोड़ दिया । यह है जीवन का जागरण, और यह है जीवित विवेक । भगवान् महावीर ने अध्यात्म-साधक बनने के लिए कहा था-"दूसरों का दमन मत करो, स्वयं अपना ही दमन करो । जो साधक स्वयं अपना दमन करता है, वह इस लोक में और परलोक में सुखी हो जाता है ।" अध्यात्म-साधना की यह वाणी आज भी आगमों के पृष्ठों पर चमक रही है और राह भूले राही को उसके गन्तव्य पथ की दिशा का संकेत कर रही है ।
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