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मनुष्य स्वयं दिव्य है
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त्याग की भावना मनुष्य के हृदय में सहज-भाव से नहीं उभरती है, तब तक हम अपने जीवन को किसी भी साधना में संलग्न नहीं कर सकते । एक बात जो साधक को विशेष रूप से अपने ध्यान में रखनी है, वह यह है, कि हम जो कुछ करें वह सब हमारे आत्म-कल्याण के लिए ही हो । इसके अतिरिक्त लौकिक सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए की जाने वाली साधना, वस्तुतः साधना नहीं है । मनुष्य को सोचना चाहिए, कि मैं इस संसार में महान है. पर मेरी महानता का आधार मेरा धन-वैभव नहीं है, मेरी बाह्य विभूति नहीं है, मेरा जन और परिजन भी नहीं है, मेरी महानता का एकमात्र आधार है, मेरी आत्मा । जिन व्यक्तियों का अध्यात्म-विकास नहीं हुआ है, वे दूसरों को खोजने का प्रयत्न करते हैं । इसके विपरीत अध्यात्मवादी साधक दूसरे को न खोजकर स्वयं अपने को ही खोजने का प्रयत्न करता है । चीन देश के महान विचारक सन्त कन्फ्यूसियस ने लिखा है-"What the undeveloped man seeks is others, what the advanced man seeks is himself'' अज्ञानी लोग ही दूसरों को जानने का प्रयत्न करते हैं । ज्ञानी वही है, जो अपने आपको जानने का प्रयत्न करता है । __मैं आपसे मानव-जीवन की महिमा और गरिमा की बात कह रहा था । यह कह रहा था, कि भारतीय संस्कृति में और भारतीय धर्म परम्परा में मानव-जीवन को कितना गौरवमय स्थान मिला है ? मानव-जीवन की महत्ता, शक्ति, परिवार और धन के आधार पर कभी नहीं हो सकती । उसकी महानता का एक ही आधार है, विचार और आचार । विचार और आचार के अभाव में मानव-जीवन, पशु-जीवन से अच्छा नहीं कहा जा सकता । मानव-जीवन के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है, उसका तथ्य यही है, कि यह र आपमें एक महान शक्ति है, क्योंकि इस नर में नारायण बनने की शक्ति है, इस मानव में अतिमानव बनने की शक्ति है और भक्त में भगवान बनने की योग्यता है । एशिया के महान् दार्शनिक और विचारक शिन्तो का कथन है, कि “There exists no highest deity outside the human mind. Man himself is Divine'". "अर्थात् मनुष्य स्वयं अपने आप में दिव्य है । मनुष्य के हृदय से ऊँचा अन्य कोई देवता नहीं है" । वस्तुतः अपनी महत्ता को न पहचानने के कारण ही, मनुष्य का पतन होता है । उसका पतन कहीं बाहर से नहीं, स्वयं उसके अन्दर से ही होता है । लोग कहा
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