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जैन धर्म अतिवादी नहीं है
वह अनन्त हो जाती है । अहिंसा के पूर्ण विकास को ही हम अहिंसा का अनन्त रूप कहते हैं । जो बात अहिंसा के सम्बन्ध में है, वही बात आत्मा के अन्य गुणों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है । कल्पना कीजिए, आपके सामने विशाल जल-राशि है । उस सागर की विशाल जलराशि को सम्पूर्ण रूप में पीने की शक्ति हर किसी में नहीं हो सकती । पौराणिक कथा के अनुसार यह शक्ति अगस्त्य ऋषि में ही थी । एक व्यक्ति एक गिलास पानी पी सकता है, दूसरा व्यक्ति एक लोटा पानी पी सकता है, सम्भवतः एक व्यक्ति वह भी हो, जो एक घड़ा पानी पी जाए, किन्तु समस्त जलराशि को पीने की शक्ति हर किसी व्यक्ति में नहीं हो सकती, वह शक्ति तो अगस्त्य ऋषि में ही हो सकती है । अगस्त्य ऋषि के सम्बन्ध में पुराणों में कहा गया है, कि उसने समस्त समुद्र को एक चुल्लू में ही पी लिया था । अगस्त्य ऋषि के जीवन की घटना जो कुछ पुराणों में उपलब्ध होती है, उसमें अलंकार हो सकता है, परन्तु मैं आपसे अध्यात्म साधना के क्षेत्र की बात कह रहा हूँ । अध्यात्म साधना के क्षेत्र में कुछ साधक इस प्रकार के हो जाते हैं, जो एक ही मुहूर्त में पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं । मैं साधना के क्षेत्र में इस प्रकार के साधकों को आध्यात्मिक अगस्त्य ऋषि कहता हूँ । साधना के क्षेत्र में जो अगस्त्य ऋषि बनकर के आते हैं, वे अपने जीवन का कल्याण इतनी शीघ्रता के साथ कर जाते हैं, कि आपको और हमको उनकी जीवन-गाथा पढ़कर बड़ा आश्चर्य होता है । हर कोई व्यक्ति इस प्रकार प्रारम्भ में ही अगस्त्य ऋषि नहीं बन सकता, फिर भी मैं कहूँगा, कि आत्मा में अनन्त शक्ति होती है । और एक न एक दिन साधक को अगस्त्य ऋषि बनना ही होता है । अनन्त शक्ति सम्पन्न आत्मा क्या नहीं कर सकता ? वह सब कुछ कर सकता है । परन्तु कब कर सकता है, जब कि वह अपनी अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति कर ले । शक्ति होते हुए भी यदि उसकी अभिव्यक्ति नहीं हुई है, तो कुछ नहीं हो सकता, अणु को विराट बनाने से ही उस अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति होती है । जिस साधक ने अपनी आत्मशक्ति का जितना विकास कर लिया है, वह उतना ही अधिक अपने विकास मार्ग पर आगे बढ़ सकता है ।
कुछ साधक हैं, जो चलते तो बहुत हैं, किन्तु फिर भी कुछ प्रगति नहीं कर पाते । तेली के बैल की भाँति वे एक ही स्थान पर घूमते रहते हैं, और दुर्भाग्य से उसे ही अपनी यात्रा समझ लेते हैं । आपने
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