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समाज और संस्कृति
वह शक्ति-पुञ्ज बन जाता है । शक्ति का अधिवास जड़ और चेतन सभी में होता है । आवश्यकता है, उसे अभिव्यक्त करके किसी कार्य में लगा देने की । शक्ति-सम्पन्न व्यक्ति अपनी प्रसुप्त शक्ति को प्रबुद्ध करके; असाधारण कार्य कर दिखाता है, जब कि आलस्य-ग्रस्त मनुष्य और अकर्मण्य मानव केवल अपनी आँखें ही मलता रहता है । .
__ आपको यह ज्ञात ही है, कि जब राम को चतुर्दश वर्ष का वनवास मिला, और जब वे अपने राज्य अयोध्या को छोड़कर विकट वनों की यात्रा कर रहे थे, तब उनके पास क्या साधन थे ? पर अपनी आत्म शक्ति से उन्होंने हनुमान जैसे दुर्धर्ष व्यक्ति को अपना अनन्य भक्त बना लिया और शक्तिशाली एवं महाबलशाली शत्रु को पराजित करके किष्किन्धा राज्य पर सुग्रीव को बैठाकर, उसे भी अपना अनन्य मित्र बना लिया । साधन-हीन राम साधन-सम्पन्न बन गये । अपने पिता के घर से एक कण मात्र भी साधन लेकर वे नहीं निकले थे, किन्तु विकट वनों में रहकर भी, उन्होंने सब कुछ पा लिया । स्व-उपार्जित शक्ति के बल पर ही उन्होंने रावण जैसे, मेघनाद जैसे और कुम्भकर्ण जैसे प्रचण्ड शक्तिधर आततायी दैत्यों का दलन किया । यह सब कुछ उनकी जीवन-शक्ति का ही चमत्कार है । अतीत काल के इतिहास के चमकदार पृष्ठों पर आप जिन चमकदार जीवन-गाथाओं को सुनते हैं, उन सबके मूल में शक्ति का ही प्रभाव और शक्ति का ही चमत्कार है ।
शक्ति-सफलता का आधारभूत उपादान है । शक्ति के बिना कुछ भी सम्पन्न होना असम्भव है । कर्म के सभी रूपों में वह एक मौलिक तत्व है । यह समस्त विश्व-चक्र अजेय शक्ति की ही अभिव्यक्ति है । शक्ति ही वास्तविक जीवन है । शक्ति के बिना, जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती । आदि-युग के मानव से लेकर इस विज्ञान-युग के मानव तक, मनुष्य ने जो कुछ आविष्कार किया है, और जो कुछ पाया है, वह सब कुछ उसके अदम्य उत्साह, अथाह परिश्रम और प्रसुप्त शक्ति को प्रबुद्ध करने का ही एक मात्र फल है । कर्महीन और क्रियाहीन व्यक्ति अपने आपमें कितना ही शक्तिधर क्यों न हो, वह इस विश्व में किसी भी प्रकार का महान कार्य नहीं कर सकता । शक्तिशाली व्यक्ति ही वह व्यक्ति है, जिसने अपनी शक्ति को झकझोर करके जागृत कर दिया है, और जो अपनी श्रम-साधना से उपलब्धियों व लक्ष्यों की प्राप्ति करता है । मनुष्य का लक्ष्य अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी हो सकता
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