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समाज और संस्कृति
विद्वान होने के साथ-साथ वे तत्व-चिन्तक और तत्व-दर्शी भी थे । संसार में रहकर उन्होंने जो कुछ अनुभव किया, अच्छा या बुरा, उसको उन्होंने अपने तीन ग्रन्थों में उपनिबद्ध कर दिया-श्रृंगार-शतक', 'वैराग्य-शतक' और 'नीति-शतक' । अपने 'नीति-शतक' ग्रन्थ में उन्होंने कहा है, कि "शरीर का श्रृंगार स्नान करने से, शरीर पर चन्दन का विलेपन करने से, शरीर को सुन्दर वसन से आच्छादित करने से और शरीर को स्वर्ण और रत्नों के अलंकारों से अलंकृत करने से नहीं होता है, शरीर का श्रृंगार होता है, सेवा से और समय पड़ने पर दूसरे की सहायता करने से ।" वाणी का श्रृंगार उन्होंने अलंकृत भाषा को नहीं बताया, उन्होंने कहा-"वाणी का भूषण मौन है, वाचालता नहीं ।” कुछ लोग अपनी वाचालता को ही अपनी वाणी का श्रृंगार समझते हैं, किन्तु वाचालता से वाणी विभूषित नहीं होती । वाणी का अलंकार है—मौन एवं वाक्-संयम । मौन और वाक्संयम बिना शक्ति के नहीं किया जा सकता । बोलना जितना आसान है, मौन रहना उतना आसान नहीं है । मौन रखने के लिए मानसिक शक्ति की बड़ी आवश्यकता है । मौन रखना अपने आपमें एक तप है, इस तप को वही व्यक्ति कर सकता है, जिस व्यक्ति ने वाक्-संयम की कला को सीख लिया है । अपनी वाणी का जादू हजारों श्रोताओं पर प्रभाव डालने में जितना आसान हो सकता है, उतना आसान मौन रहकर अपने आचार का प्रभाव डालना नहीं हो सकता । वक्ता होना सहज है, किन्तु मौन रहकर अपने आचार का प्रभाव जन-मानस पर डालना निश्चय ही बहुत कठिन है । किस समय पर क्या करना चाहिए और किस समय पर क्या बोलना चाहिए, इस प्रकार का विवेक हर किसी इंसान को नहीं होता । वाणी का भूषण मौन बताया गया और शरीर का श्रृंगार सेवा को कहा गया है । वस्तुतः मौन रहना और सेवा करना दोनों में बहुत बड़ी शक्ति की आवश्यकता है । सेवा-धर्म इतना गहन और गम्भीर होता है कि योगी भी उसे प्राप्त नहीं कर सकते । शक्ति होते हुए भी दूसरे के दुर्वचन सुनकर मौन और शान्त रहना, बड़ी, की कठिन साधना है । मानसिक शक्ति का संतुलन किए बिना, व्यक्ति मौन नहीं रह सकता । अपमान को सहन करना क्या आसान काम है ?
महाभारत में वर्णन आया है, कि जिस समय महाभारत का महायुद्ध पूरे वेग से चल रहा था, अर्जुन के धनुष की टंकार चारों ओर गूंज रही
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