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जीवन की क्षण-भंगुरता
रहा था, कि अनित्यता के उपदेश के द्वारा ही इस संसारासक्ति को दूर किया जा सकता है । क्षणभंगुरता और अनित्यता के उपदेश का यही एक मात्र रहस्य है ।
शास्त्र में जीवन के दो रूप माने गये हैं सरल जीवन और कुटिल जीवन । जो व्यक्ति सरल है, वह सर्वत्र सरलता के ही दर्शन करता है । जिस व्यक्ति की आत्मा सरल होती है, उसका मन भी सरल होता है, उसका आचरण भी सरल होता है और उसका शील एवं स्वभाव भी सरल ही होता है । सरल आत्मा सम्पूर्ण जगत को सरलता की दृष्टि से ही देखता है । मेरे कहने का अभिप्राय यह है, कि जीवन में सर्वत्र सरलता ही सरलता चाहिए । चिन्तन में सरलता हो, भाषा में भी सरलता हो और आचार में भी सरलता हो । जिसके मन में, जिसकी वाणी में और जिसके कर्म में सरलता होती है, वह आत्मा सरल होता है, शास्त्रीय भाषा में उस आत्मा को सम्यक दृष्टि आत्मा कहा जाता है । सम्यक् दृष्टि आत्मा कभी भी अपनी सरलता का परित्याग नहीं करता है । इसके विपरीत कुटिल जीवन अथवा वक्र जीवन उसे कहा जाता है, जिसमें किसी प्रकार की सरलता नहीं रहती । कुटिल और वक्र आत्मा की मति भी वक्र होती है, और उसका शील और स्वभाव भी वक्र ही होता है । वक्र आत्मा सम्पूर्ण जगत को वक्रता और कुटिलता की दृष्टि से ही देखा करता है । जीवन में कहीं भी उसे सरलता की अनुभूति नहीं होने पाती । और तो क्या, कुटिल आत्मा अपने स्वयं के प्रति भी कुटिलता का ही व्यवहार करता है । कुटिल आत्मा का मन भी कुटिल होता है, वाणी भी कुटिल होती है और कर्म भी कुटिल होता है । शास्त्रीय परिभाषा में कुटिल आत्मा को मिथ्या दृष्टि कहा जाता है । कुटिल आत्मा इस संसार में सदा आसक्त रहता है। उसके जीवन में किसी प्रकार का संयम और त्याग टिक नहीं पाता है । सरल आत्मा को अपेक्षा कुटिल आत्मा सदा हीन-कोटि का ही रहता है । जगत कितना भी अच्छा क्यों न हो, किन्तु कुटिल आत्मा को वह कुटिल ही दृष्टिगोचर होता है । कुटिल आत्मा संसार में कहीं पर भी किसी भी व्यक्ति में गुण नहीं, अवगुण ही देखा करता है ।
भारतीय संस्कृति में भोग की अपेक्षा योग को महत्व दिया गया है । असंयम की अपेक्षा संयम का संगीत सुनाया गया है । भारतीय संस्कृति में आज से ही नहीं, प्रारम्भ से ही तपोमय और त्यागमय जीवन-गाथाओं
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