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जैन धर्म अतिवादी नहीं है
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और बल नहीं रहा । आप मुझे संथारा करने की आज्ञा दीजिए ।" गुरु ने कहा-रअभी से संथारा करने की आज्ञा कैसे दी जा सकती है ? अरे वत्स ! –'जुरेहि अप्पाणं ।' अभी अपने आपको और पतला करो ।' वह शिष्य फिर तपस्या करने चला गया । अब तक वह एक दिन उपवास
और एक दिन पारणा करता था, अब वह दो दिन उपवास और एक दिन पारणा करने लगा । कुछ समय बाद फिर गुरु के पास आया और बोला-"मुझे संथारा करने की आज्ञा दीजिए ।" गुरु ने फिर वही बात कही-"अपने आपको और पतला करो ।" शिष्य फिर तपस्या की साधना के लिए लौट गया । अब की बार उसने और अधिक कठोर साधना की । तीन दिन उपवास करता और एक दिन पारणा करता । कुछ काल तक यह कठोर साधना करके वह फिर गुरु के समीप आया और बोला-"गुरुदेव ! अब तो संथारा की आज्ञा दीजिए ।" गुरु ने सहज भाव से फिर वही बात कह दी–“अभी अपने को और पतला करो ।" गुरु के इस वाक्य को सुनकर शिष्य के मन का प्रसुप्त क्रोध रूप विषधर जागृत हो गया, आँखें अंगारे जैसी लाल हो गईं, होठ फड़फड़ाने लगे
और शरीर कांपने लगा । क्रोध के वशीभूत होकर, उसने अपने हाथ की एक उँगली तोड़कर गुरु के सामने फेंक दी और क्रोध की भाषा में बोला-"अपने आपको और कैसे पतला करूँ ? सारा शरीर तो सूख गया है, रक्त की एक बूंद भी शेष नहीं है, फिर भी आप एक ही बात कहे जा रहे हैं, कि अपने आपको और पतला करो ।" गुरु ने प्रेम भरे शब्दों में और शान्त-स्वर से कहा-"वत्स ! मेरा अभिप्राय शरीर को पतला करने से नहीं है । शरीर भले ही मोटा हो अथवा पतला हो । शरीर के मोटेपन से और पतलेपन से साधना में कुछ बिगड़ता बनता नहीं है । मेरा अभिप्राय था, मन को और मा के विकारों को पतला करने से । तुम्हारा अन्तस्तल कषाय से स्थल हो रहा है, उसे पतला करने की आवश्यकता है । इतने वर्षों तक तुमने उग्र, घोर और उत्कृष्ट तपस्या की, किन्तु अपने अन्दर के कषायभाव को जीत नहीं सके । क्रोध को जीता नहीं, मान को जीता नहीं; माया को जीता नहीं और लोभ को जीता नहीं । भूखा और प्यासा रहना, तपस्या नहीं है । सच्ची तपस्या है, अपने कषायभाव को जीतना । मन के विकार और विकल्पों को जीतना ही सच्ची साधना है । इतने वर्षों तक तुमने तप की साधना की, कठोर आचार का पालन किया, अन्य सब कुछ किया, किन्तु तुम्हारी
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