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जीवन की क्षण-भंगुरता
है ? इसके उत्तर में भारतीय दर्शन कहता है, कि इस क्षणभंगुर, अनित्य और मर्त्य शरीर में जो कुछ अमर्त्य है, जो कुछ अमृत है और जो कुछ अमर है, वही आत्म-तत्व है । यह आत्म-तत्व वह तत्व है, जिसका न कहीं आदि है, न कहीं मध्य है और न कहीं अन्त है । यह आत्म-तत्व अविनाशी है, नित्य है और शाश्वत है । न कभी इसका जन्म हुआ है और न कभी इसका मरण होगा। भारत के प्राचीन दार्शनिकों ने अपनी समग्र शक्ति इसी अविनाशी तत्व की व्याख्या में लगा दी थी । आत्मा क्या है ? वह ज्ञान है, वह दर्शन है, वह चरित्र है, वह आलोक है, वह प्रकाश है । अमृत वह होता है, जो अनन्त काल से है और अनन्त काल तक रहेगा।
। उपनिषद् के एक ऋषि ने कहा है—“अमृतस्य पुत्राः ।" हम सब अमृत के पुत्र हैं । हम सब अमृत हैं, हम सब शाश्वत हैं और हम सब नित्य हैं । अमृत आत्मा का पुत्र अमृत ही हो सकता है, मृत नहीं । ईश्वर अमृत है और हम सब उसके अमृत-पुत्र हैं । जिन और सिद्ध शाश्वत हैं, इसलिए हम सब शाश्वत हैं और नित्य हैं । इस अमृत भाग को जिसने जान लिया और समझ लिया, उस आत्मा के लिए इस संसार में कहीं पर भी न रोग है, न शोक है, न क्षोभ है और न मोह है । क्षोभ और मोह की उत्पत्ति जीवन के मर्त्य भाग में होती है, अमर्त्य भाग में से नहीं । किसी का प्रियजन मर जाता है, तो वह विलाप करता है । मैं पूछता हूँ कि विलाप किसका किया जाता है ? आत्मा का अथवा देह का ? आत्मा के लिए विलाप करना एक बहुत बड़ा अज्ञान ही है, क्योंकि वह सदाकाल के लिए शाश्वत है, फिर उसके लिए विलाप क्यों ? यदि शरीर के लिए विलाप करते हो, तो यह भी एक प्रकार की मूर्खता ही है, क्योंकि शरीर तो क्षणभंगुर ही है, अनित्य ही है, वह तो मिटने के लिए ही बना था । अनन्त अतीत में वह अनन्त बार बना है और अनन्त बार मिटा है । अनन्त अनागत में भी वह अनन्त बार बन सकता है और अनन्त बार मिट सकता है, जिसका स्वभाव ही बनना और बिगड़ना है, उसके लिए विलाप क्यों ? जीवन में जो अमर्त्य है, वह कभी नष्ट नहीं होता और जीवन में जो मर्त्य है, वह टिक कर रह नहीं सकता । अतः क्षण-भंगुरता की दृष्टि से और नित्यता की दृष्टि से भी विलाप करना अज्ञान का ही द्योतक है । जो कुछ मर्त्य भाग है, वह किसी का भी क्यों न हो और किसी भी काल का क्यों न हो, कभी
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