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समाज और संस्कृति
तेली के बैल को देखा होगा । प्रभात बेला में जब तेली अपने बैल को घानी में जोतता है, तब वह उसकी दोनों आँखों पर पट्टी बाँध देता है । तेली का वह बैल दिन भर घूमता है और दिन भर चलता रहता है, परन्तु कहावत है, कि "ज्यों तेली के बैल को घर ही कोस पचास । " तेली का बैल दिन भर चलता चलता थक जाता है, परिश्रान्त हो जाता है । वह अपने मन में सोचता है, कि आज मैं बहुत चला हूँ, चलता - चलता थक गया हूँ, कम से कम चालीस-पचास कोस की यात्रा तो मैंने कर ही ली होगी । सायंकाल के समय जब तेली उसकी आँख पर से पट्टी हटाता है, तब वह देखता है, कि मैं तो वहीं पर खड़ा हूँ, जहाँ से मैंने यात्रा प्रारम्भ की थी । दिन भर चला, फिर भी वहीं का वहीं पर हूँ । साधना के क्षेत्र में भी बहुत से साधकों की यही जीवन दशा रहती है । साधना करते-करते उन्हें पचास-साठ वर्ष हो जाते हैं, फिर भी वे किसी प्रकार की प्रगति नहीं कर पाते । साधक जीवन की यह एक विकट विडम्बना है । पचास-साठ वर्ष तक सिर मुड़वाते रहे, संयम का पालन करते रहे, व्रत और नियमों का पालन करते रहे, किन्तु उसका परिणाम तेली के बैल के समान शून्यवत् होता है । आखिर ऐसा क्यों होता है ? इस प्रकार का प्रश्न उठना स्वाभाविक है । साधना हो और फिर भी प्रगति न हो, यह तो एक आश्चर्य ही होगा । थकावट हो, थक कर अंग चूर-चूर हो जाए, किन्तु फिर भी वहीं के वहीं, यह साधक जीवन की अच्छी स्थिति नहीं कही जा सकती । प्रश्न है, ऐसा क्यों होता है । इसलिए होता है, कि मन की गाँठें नहीं खुलने पातीं । जब तक मन की गाँठ नहीं खुलती है, तब तक साधना का कुछ भी लाभ नहीं मिलने पाता है । मन पर वासना की परत - पर-परत जमी है, उन्हें दूर करना आवश्यक है । एक आचार्य ने बड़ी सुन्दर बात कही है—
राग-द्वेषौ यदि स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् । राग-द्वेषौ च न स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् ।।
यदि राग और द्वेष हैं, तो तपस्या करने से कुछ भी लाभ नहीं । यदि राग-द्वेष नहीं रहे हैं, तब भी तपस्या करने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि तप इसीलिए किया जाता है, कि उससे राग-द्वेष क्षीण हो जाएँ । यदि तपस्या की साधना करने पर भी राग-द्वेष क्षीण नहीं होते हैं, तो फिर तपस्या की साधना फलवती नहीं हो सकती । इसके विपरीत यदि
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