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समाज और संस्कृति
में स्नान करेंगे और फिर वापिस अपने घर लौट चलेंगे, किन्तु वस्तुतः वे प्रयागराज नहीं पहुंचे थे, बल्कि बनारस में ही उसी गंगा घाट पर थे, जहाँ से उन्होंने अपनी तीर्थ-यात्रा प्रारम्भ की थी । सारी रात परिश्रम करने पर भी वे एक कदम आगे न बढ़ सके । प्रातःकाल नशा कम हुआ तो उन्होंने देखा, कि यह क्या हुआ, वही काशी, वही उसका घाट और वही गंगा का प्रवाह, जहाँ प्रतिदिन वे स्नान करते थे । हम तो सब प्रयाग चले थे, फिर काशी में ही कैसे रह गये, इस पर सबको बड़ा आश्चर्य था । उनके दूसरे मित्रों ने, जो गंगा पर स्नान करने आये थे, “कहा कि आज क्या सोच रहे हो, नौका में बैठकर कहाँ जाने का विचार कर रहे हो ?" वे सब एक दूसरे का मुख देखने लगे और विचार करने लगे, कि यह हो क्या गया है ? देख-भाल करने पर पता लगा, कि नाव का रस्सा नहीं खोला गया है । इसीलिए नाव यहाँ की यहाँ पर ही रही, आगे नहीं बढ़ सकी । एक रात तो क्या हजार रात तक भी अगर परिश्रम करते, तब भी नौका आगे नहीं बढ़ सकती थी । यह बोध उन्हें कब हुआ, जब कि उनका भंग का नशा दूर हो गया । नशे की दशा में न उन्हें अपना सम्यग् बोध था, न नौका की गति का बोध था और न यही परिज्ञान था, कि हम काशी में हैं अथवा प्रयाग पहँच रहे हैं । यह कहानी एक रूपक है । उसके मर्म को और उसके रहस्य को समझने का आपको प्रयत्न करना चाहिए ।
क्या आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में मोह मुग्ध आत्मा वैसा ही कार्य नहीं करता है, जैसा कि पण्डों ने किया था ? साधक सामायिक करता है, पौषध करता है, उपवास करता है और विभिन्न नियमों का परिपालन भी करता है, किन्तु फिर भी वह पूर्व वासना से बँधा वहीं खड़ा रहता है । वह समझता है, कि मैं अध्यात्म-साधना कर रहा हूँ, किन्तु मोह-भाव के कारण वह अपनी वास्तविक स्थिति को नहीं समझ पाता । मोह के प्रभाव से वह स्थिति को ही यात्रा समझ लेता है । वह अपने हृदय में भले ही यह विचार करे, कि मैं अध्यात्म साधना कर रहा हूँ, पर मोह मुग्ध आत्मा में अध्यात्म भाव तो लेश मात्र भी नहीं रहने पाता । दृष्टि में मोहं भी रहे और अध्यात्म भाव भी रहे, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? क्या कभी रजनी और दिवस दोनों एक काल में और एक देश में खड़े रह सकते हैं ?
जैन धर्म साधना को महत्त्व अवश्य देता है, किन्तु अति साधना को
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