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समाज और संस्कृति
कवि ने इस दोहे में 'कनक' शब्द का प्रयोग करके कमाल कर दिया है । संस्कृत भाषा में कनक शब्द के दो अर्थ होते हैं— सोना और धतूरा । कनक शब्द का प्रयोग सोना के लिए भी किया जाता है और धतूरा के लिए भी किया जाता है । स्वर्ण को भी कनक कहते हैं और धतूरे को भी कनक कहते हैं । यहाँ पर कवि का अभिप्राय यह है, कि नशा देने वाले धतूरे से भी बढ़ कर • सौगुनी मादकता स्वर्ण में अर्थात् धन में है । नशा दोनों में है, धतूरे में भी नशा है और सोने में भी नशा है । सोने से मतलब धन एवं सम्पत्ति से है । सोना है जड़ वस्तु, किन्तु उसमें अत्यधिक मादकता होती है । धतूरा कितना ही इकट्ठा कर ले, उससे कोई नशा नहीं चढ़ता है । उसको हाथ में लिए रहें, कोई नशा नहीं चढ़ सकता । लेकिन उसे खाएँगे, तभी नशा चढ़ेगा । लेकिन सोने के सम्बन्ध में कहा गया है, कि उसका स्वभाव तो यह है, कि उसके हाथ में आते ही मनुष्य को नशा चढ़ जाता है । मनुष्य पागल और बेभान हो जाता है । धतूरे को खाने पर नशा चढ़ता है, पर सोने को देखने मात्र से नशा चढ़ जाता है । धन की आसक्ति एक ऐसी आसक्ति है, जिसके समक्ष धतूरे का नशा भी नगण्य है । मैं आपसे कह रहा था, कि दुर्जन व्यक्ति की विद्या विवाद के लिए होती है, धन अहंकार के लिए होता है और शक्ति दूसरों को पीड़ा देने के लिए होती है । दुर्जन व्यक्ति की शक्ति फिर वह भले ही किसी भी प्रकार की क्यों न हो, किन्तु वह अपने और दूसरे के विनाश के लिए ही होती हैं । दुर्जन की दुर्जनता है, कि वह इन साधनों को प्राप्त करके अपने आपको पतन के गहन गर्त में गिरा लेता है, वह उत्थान के मार्ग पर नहीं चल पाता ।
मैं आपसे कह रहा था, कि नीतिकार आचार्य ने अपने एक श्लोक में संसार में समग्र मानवों के शील और स्वभाव का वर्णन कर दिया है और इन्हें दो भागों में विभक्त कर दिया है । दुर्जन की बात मैंने आपसे कही, किन्तु सञ्ज्ञ्जन व्यक्ति का स्वरूप उससे सर्वथा भिन्न होता है । सज्जन पुरुष अथवा साधु पुरुष उसे कहा जाता है, जो अपने समान ही दूसरों को भी समझता है । वह धर्मशील होता है, पापाचार में उसकी रुचि नहीं रहती । जब पापाचार और मिथ्याचार में उसकी रुचि नहीं है, तब पापाचर और मिथ्याचार का अन्धकार उसके जीवन में क्षितिज पर कैसे रह सकता है ? साधु-पुरुष इतना कोमल और इतना मृदु मानस होता है, कि वह अपना कष्ट एवं दुःख तो सहन कर सकता है, किन्तु दूसरे
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