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समाज और संस्कृति
व्यक्ति, परिवार और राष्ट्र का विनाश भी हो सकता है । देखा यह जाता है, कि कौन व्यक्ति किस भूमिका का है और कौन व्यक्ति किस विचार-धारा का है । संयमी और दयावान व्यक्ति यदि बलवान होता है, तो उससे व्यक्ति और समाज को लाभ ही होता है । इसके विपरीत यदि व्यक्ति असंयमी और क्रूर है, तो उसके बल एवं शक्ति से व्यक्ति और समाज को क्षति एवं हानि ही पहुँचती है । अतः धर्म शील व्यक्ति का बलवान् होना अच्छा है तथा अधर्म शील व्यक्ति का निर्बल होना अच्छा है । धर्म शील व्यक्ति यदि अधिक बलवान् होगा, तो धर्म अधिक करेगा, अधर्म शील व्यक्ति यदि निर्बल और कमजोर रहेगा, तो अधर्म एवं पाप कम कर सकेगा । शक्ति असुरों के पास भी रहती है और शक्ति देवों के पास भी रहती है । असुरों की शक्ति दूसरों के त्रास के लिए होती है और देवों की शक्ति दूसरों के परित्राण के लिए होती है । कहने का अभिप्राय यह है, कि जो साधक है, जिसने जीवन को परखा है, जो अपने जीवन के साथ-साथ दूसरे के जीवन को भी परख सकता है, जिसकी दृष्टि में अपने जीवन के साथ दूसरों के जीवन का भी महत्व है, जिसने दूसरों के जीवन के महत्व को समझा है, वस्तुतः वही व्यक्ति धर्मशील एवं धार्मिक होता है । जैन दर्शन की परिभाषा के अनुसार वही व्यक्ति धर्मशील कहा जा सकता है, जो स्वयं भी जीवित रहे और दूसरों को भी जीवित रहने का अवसर प्रदान करे । जो स्वयं भी शान्त रहे और दूसरे को भी शान्त रखे ।
मैं आपसे कह रहा था, कि भगवान महावीर ने अपनी अनेकान्तमयी दृष्टि से राजकुमारी जयन्ती के प्रश्न का जो उत्तर दिया था, वह सत्यभूत था और यथार्थ था । धार्मिक व्यक्ति का बलवान् होना, इसलिए अच्छा है, क्योंकि जब कभी वह अपनी शक्ति का प्रयोग करता है, अथवा अपने बल का प्रयोग करता है, तो विवेक से करता है, ठीक रूप में करता है । वह अपनी आत्मा का भी उद्धार करता है और दूसरे की आत्मा का भी उद्धार करता है । वह अपना भी कल्याण करता है और दूसरे का भी कल्याण करता है । वह जिधर भी निकल जाता है, उधर ही सुख-शान्ति और आनन्द की वर्षा करता है । उसके पास जीवन का अन्धकार नहीं रहता, क्योंकि वह जीवन के प्रकाश में रहता है और इसलिए दूसरों को भी जीवन का प्रकाश बाँटता है । धर्मशील व्यक्ति न स्वर्ग की अभिलाषा रखता है और न नरक का भयंकर भय ही उसे उसके
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