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'समाज और संस्कृति
प्रश्न और भगवान् महावीर के उत्तर मानव जीवन पर एक विमल प्रकाश डालते हैं ।
राजकुमारी जयन्ती भगवान महावीर से प्रश्न करती है—"भंते ! मनुष्य का बलवान् होना अच्छा है अथवा निर्बल होना अच्छा है ?" यह प्रश्न भले ही सामान्य प्रतीत हो, परन्तु बहुत ही गम्भीर एवं विशुद्ध है । बलवान् अथवा निर्बल होने में क्या भेद है और क्या रहस्य है ? संसार में बल अनेक प्रकार के माने गये हैं—तन-बल, मन-बल, आत्म-बल, जन-बल, धन-बल और प्रज्ञा-बल । बल और शक्ति के अन्य भी हजारों रूप हो सकते हैं । प्रश्न यह है, कि जीवित रहना तो मनुष्य का धर्म है, किन्तु वह बलवान् होकर जीवित रहे अथवा बलहीन होकर जीवित रहे । आप कह सकते हैं, कि बलवान् होकर जीवित रहना ही अधिक अच्छा है । यह आपका अपना उत्तर हो सकता है, किन्तु भगवान महावीर ने कौशाम्बी के समवसरण में राजुकमारी जयन्ती को इस प्रश्न का जो उत्तर दिया था, वह एकान्तवादी न होकर अनेकान्तवादी था । भगवान् महावीर की वाणी अनेकान्तमयी है । भगवान जब कभी भी जिस किसी के भी प्रश्न का उत्तर देते हैं, तब स्याद्वाद और अनेकान्तवाद के आधार पर ही देते हैं । किसी भी सत्य का निर्णय एकान्तवाद के आधार पर नहीं किया जा सकता । जैन दर्शन में स्याद्वाद और अनेकान्तवाद को सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त माना गया है । जैन दर्शन का आदि, मध्य और अन्तिम विकास अनेकान्तवाद के रूप में ही हुआ है । अनेकान्तवाद जैन दर्शन का मूल केन्द्र है । अनेकान्तवाद जैन दर्शन का हृदय है । अनेकान्त दृष्टि और तन्मूलक अहिंसात्मक आचार, समग्र जैन दर्शन इन्हीं दो आधारभूत स्तम्भों पर खड़ा है । अतः प्रत्येक प्रश्न का उत्तर यदि अनेकान्त दृष्टि से दिया जाता है, तो उसे सम्यक् समाधान कहा जाता है । यह प्रश्न जयन्ती ने कहाँ पूछा था ? इस सम्बन्ध में, मैं अभी आपको बता चुका हूँ, कि कौशाम्बी के समवसरण में भगवान से यह प्रश्न पूछा गया था ।
कौशाम्बी नगरी का इतिहास प्राचीन और महत्वपूर्ण है । वैदिक, जैन और बौद्ध परम्पराओं का कभी किसी युग में यह एक मुख्य केन्द्र माना जाता था । जैन आगमों में स्थान-स्थान पर कौशाम्बी नगरी का वर्णन आता है । कौशाम्बी नगरी में अनेक बार भगवान महावीर का समवसरण लगा था । वहाँ की सहस्राधिक जनता ने भगवान की अमृतमयी वाणी का अमृत-पान किया था । कौशाम्बी नगरी का जो कुछ उल्लेख
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