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समाज और संस्कृति
मैं आपसे यह कह रहा था, कि जब तक आत्मा में आत्म-बुद्धि नहीं होगी, तब तक जीवन की विशुद्धि सम्भव नहीं है । शरीर में आत्म-बुद्धि होना ही सबसे बड़ा क्लेश और सबसे बड़ा दुःख है । शरीर को आत्मा समझने वाला व्यक्ति अपने जीवन का कल्याण कैसे कर सकता है ? जो व्यक्ति अपने तन में आत्म-भाव लेकर खड़ा है, हजार वर्ष की साधना भी उसके जीवन में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकती । देहात्मभाव ही सबसे दुःखद विकल्प है, जीवन का सबसे बड़ा दोष है । जब तक यह है, तब तक संसार के ऐश्वर्य में और विश्व की विभूति में आसक्ति-भाव अवश्य ही रहेगा । स्वर्ग और नरक के रंगीन स्वप्न भी उसके मानसिक पटल से ओझल नहीं हो सकते । स्वर्ग और नरक के बीच में न जाने कितने काल से यह आत्मा परिभ्रमण कर रहा है । वस्तुतः देहात्म, बुद्धि वाले व्यक्ति के मन में मुक्ति की कभी अभिलाषा ही जागृत नहीं होती । संसार के भोग और विलास में आसक्त आत्मा संसार के बन्धन को बन्धन ही नहीं समझता, फिर उसके हृदय में मुक्ति की अभिलाषा कैसे जागृत हो ? संयम और त्याग का मूल्य भी तभी हो सकता है, जब कि मिथ्यात्व का विकल्प टूट चुका हो । यदि मिथ्यात्व का विकल्प विद्यमान है, तो तप और जप से किसी प्रकार का लाभ नहीं हो सकता । आचार का और संयम की साधना का तभी कुछ महत्व सिद्ध हो सकता है, जब कि मिथ्यात्व का दोष आत्मा में न रहे । आत्मा को आत्मा न समझने वाला दोष मिथ्यात्व ही है । सम्यक् दृष्टि आत्मा जो कुछ भी छोटी-बड़ी साधना कर पाता है, वह मोक्ष का अंग बन जाती है । इसके विपरीत मिथ्या दृष्टि आत्मा की बड़ी से बड़ी साधना भी परिणाम में अर्थहीन होती है । लोग कहते हैं, कि मुक्ति कैसे प्राप्त हो ? मैं कहता हूँ, कि मुक्ति प्राप्त नहीं करनी है, वह तो प्राप्त ही है । प्राप्त तो वह हो जो अप्राप्त है, किन्तु जो प्राप्त है उसका प्राप्त करना क्या ? मुक्ति कहीं बाहर में नहीं है, जिसे प्राप्त किया जाए । स्व स्वरूप की उपलब्धि ही जब मुक्ति है, और वह मूल पारिणामिक भाव से स्वतः सिद्ध है ही, तब उसे प्राप्त करने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता । केवल एक ही प्रयत्न हमें करना है और वह यह कि स्व स्वरूप के आवरण रूप मिथ्यात्व के विकल्प को हम दूर कर दें । जब समग्र भाव से मिथ्यात्व का विकल्प दूर हो जाता है, तब मुक्ति की उपलब्धि में भी कुछ विलम्ब नहीं होता । याद रखिए, मुक्ति माँगने से नहीं मिलती । वह कोई
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