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विकल्प से विमुक्ति
और वंश की लाज रखना मेरा परम कर्तव्य है । खाट पर पड़े-पड़े वह यह सब कुछ सोच रहा था । सहसा उसका हाथ उसके गले में पड़े तावीज पर जा पडता है । विचार किया, मेरे माता-पिता इतने बड़े धनी और इतने अधिक बुद्धिमान थे, तो इसमें अवश्य ही मेरे लिए कुछ बाँध गये हैं । दूसरे क्षण ही उसके मन में विचार आया, कि इस तावीज में क्या रखा है । यह तो बच्चों के गले में केवल इसलिए डाल दिया जाता है, कि उन्हें नजर न लग जाए । किन्तु दरिद्र व्यक्ति को दरिद्रता की अवस्था में, कूड़े-कचड़े में भी धन सम्पत्ति नजर आने लगती है । सेठ के पुत्र ने विचार किया, भले ही इस तावीज में कुछ न हो, इसे खोल कर देखने में आपत्ति भी क्या है ? तावीज को गले से निकाला और उसके ताँबे के खोल को दूर किया, तो उसके अन्दर चाँदी का दूसरा खोल निकला, उसे भी तोड़ा तो तीसरा खोल स्वर्ण का निकला । सेठ का पुत्र अपने मन में विचार करे लगा, निश्चय ही मेरे पिता बड़े बुद्धिमान थे । सम्भवतः मेरे दुर्दिनों के लिए ही उन्होंने यह सब कुछ रख छोड़ा है । चाँदी को और सोने को बेचकर कुछ दिन गुजारा चल सकता है । फिर मन में विचार उठा, कि इस सोने के खोल को भी तोड़ करके क्यों न देखा जाए, उसे भी उसने तोड़ कर देखा, कि सफेद रुई में कुछ गोल-गोल लिपटा हुआ है । खोल कर देखा तो अन्दर से चमकता हुआ हीरा निकला । अब तो उसकी खुशी का कोई पार न रहा । अपने पिता की बुद्धिमत्ता पर उसका हृदय श्रद्धा से भर गया । वह अपने मन में विचार करता है; कि निश्चय ही मेरे पिता बड़े बुद्धिमान थे । आने वाली सम्पत्ति के कुचक्र से उद्धार करने के लिए ही उन्होंने यह सब कुछ किया । सेठ के पुत्र की भूख बढ़ती जा रही थी, चाँदी, सोना और हीरा उसे मिल गया था, किन्तु इससे भूख तो दूर नहीं की जा सकती थी । भूख तो रोटी से ही दूर की जा सकती है । अन्न से बढ़कर मानव-जीवन में, जीवन को स्थिर रखने के लिए अन्य कोई साधन नहीं है । इसीलिए भारत के एक ऋषि ने कहा है-“अन्नं वै प्राणाः ।"
सेठ का पुत्र उस हीरक कणी को लेकर बाजार की ओर चल पड़ा, बाजार में चलते-चलते उसे स्मरण आया, कि इसी बाजार में एक जौहरी का घर है, जो उसके पिता के घनिष्ठ मित्र हैं । वह उन्हीं के घर पर पहुँचा । उस जौहरी ने उसे देखकर पहचान लिया और कहा, कि आज बहुत दिनों के बाद आए हो, क्या बात है, बहुत दुबले-पतले हो गये
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