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जीवन का रहस्य
में संसार का एक बहुत बड़ा सत्य प्रकट कर दिया गया है । इसलिए मैं आपसे कह रहा था, कि दूसरों को बदलने की अपेक्षा अपने को बदलना ही, जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता है । सच्चा साधक चाहे घर में हो तो क्या, बाहर हो तो क्या, वन में हो तो क्या और नगर में हो तो क्या ? सब जगह उसका एक ही रूप रहता है । दीपक को घर में जलाओगे, तब भी प्रकाश देगा और जंगल में जलाओगे, तब भी प्रकाश देगा । उसके प्रकाश में किसी प्रकार की कमी नहीं आ सकती । सदाचार का मतलब है, हम जीवन को एक रस और एक रूप कर सकें । जिस सदाचार का पालन दूसरे के भय से किया जाता है, वस्तुतः वह सदाचार नहीं होता । जिस संयम में निर्भयता नहीं है, वह संयम, संयम नहीं है । बल्कि एक प्रकार का बन्धन ही है । मैं आपसे कह रहा था, कि अपने आपको बाहर में ही बदलने का प्रयत्न मत करो, अपितु अपने आपको अन्दर में भी बदलने का प्रयत्न करो । बाहर का परिवर्तन तो भय और प्रलोभन के भाव से भी हो सकता है, किन्तु अन्दर के परिवर्तन के लिए संयम भाव चाहिए अन्तर मुख चेतना चाहिए । फूल को बाहर में दबाकर या पकड़कर नहीं खिलाया जा सकता । वह तभी खिलता है, जबकि खिलने की शक्ति उसकी अन्दर में होती है । फूल बाहर से नहीं, अन्दर से खिलता है । इसी प्रकार साधना का फूल भी तभी महक सकता है, जब कि साधक के अन्तरंग मानस में समरसी भाव आ गया हो, समत्वयोग आ गया हो । ___मैंने आपसे अभी यह कहा था, कि साधक को दण्ड के बल पर नहीं चलाया जा सकता । दण्ड से पशु चलता है, साधक नहीं । साधक चलता है, अपने अन्तर् विवेक से । मनुष्य को संयम में चलाने के लिए केवल प्रेरणा की आवश्यकता है, बल-प्रयोग की नहीं । जो व्यक्ति प्रेरणा से ही अपने जीवन की दिशा को बदल देता है, वस्तुतः वह संसार का सामान्य व्यक्ति नहीं होता, उसे साधक कहा जाता है । बल-प्रयोग से चलने वाले लोग न अपना सुधार कर सकते हैं, और न दूसरों का ही सुधार कर सकते हैं । समाज बहुत बड़ा है, बल-प्रयोग से आप किस-किसको सुधारेंगे ? इसके विपरीत प्रथम इकाई के रूप में यदि आपने अपने आपको सुधार लिया, तो एक प्रकार से सारे समाज को ही सुधार लिया, सारे जगत को ही सुधार लिया । एक व्यक्ति स्वयं में एक समाज है । समाजवाद के इस सिद्धान्त को मैं मूल में गलत समझता हूँ, कि
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