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समाज और संस्कृति
मनुष्य अपनी प्रकृति में परिवर्तन नहीं करता है, तब तक वह अपने जीवन की विकृति पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता । दूसरों को जीतने की अपेक्षा, अपने को, अपने विकारों को और विकल्पों को जीतना बहुत कठिन है । वस्तुतः भारतीय संस्कृति में यही साधना है ।
एक सज्जन का मेरे साथ बहुत परिचय था । जब कभी वह घर से बाहर निकलता था और मार्ग में उसे जो कोई मिलता था, तो वह उसे नमस्कार करता, मधुर वचन बोलता और बड़े प्रेम के साथ व्यवहार करता था । जब वह किसी दूसरे को देखता, तब वह इतना प्रसन्न हो जाता था, कि उसका मुख ऐसा लगता, कि जैसे कमल खिल उठा हो । सबके साथ मधुर व्यवहार करना, सबसे मीठे वचन बोलना और सबका आदर सत्कार करना, यह उसका एक दैनिक कार्यक्रम ही बन गया था । परन्तु यह उसका बाहरी रूप था । उसके घर के अन्दर का रूप इससे भिन्न था । घर में वह रुद्र से भी अधिक भयंकर था । जैसे व्यक्ति यमराज से डरता है, इसी प्रकार उसके घर वाले उससे डरते रहते थे । घर में प्रवेश करते ही पत्नी पर क्रोध की वर्षा करता, कभी माँ-बाप पर झल्ला उठता, कभी बच्चों को डाँटता डपटता और कभी घर के नौकरों पर तूफान बरपा कर देता । बाहर में वह जितना दिव्य और सरल था, घर में वह उतना ही अधिक रुद्र और भयावह था । उसकी ऐसी भावना बन चुकी थी, कि इस घर में वही कुछ हो, जो मैं सोचता हूँ और इस घर में वही कुछ किया जाए, जो मेरी इच्छा है । वह अपने घर के सब सदस्यों को अपनी इच्छा के अनुसार ढालना चाहता था । यदि कोई उसकी इच्छा के विपरीत चलता तो उस घर में उसकी खैर नहीं रह सकती थी । पत्नी और सन्तान तो क्या, स्वयं उसके माता-पिता भी उसके भयंकर क्रोध से कांपते थे । घर का कोई भी सदस्य उसके सामने मुँह खोलने की ताकत नहीं रखता था । वह घर के बाहर जितना अधिक मधुर था, अपने घर के अन्दर में वह उतना ही अधिक कटु था । उसे अपने जीवन बदलने की चिन्ता नहीं थी, चिन्ता थी, दूसरों के जीवन को अपनी इच्छानुसार बदलने की । मैं समझता हूँ, यही उसके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी । विश्व विजेता नेपोलियन ने एक बार कहा था-"I can not create men, I must use those, I find.” मैं नया मनुष्य नहीं बना सकता, यह सत्य है, किन्तु प्रकृति की ओर से जो मानव समुदाय मुझे मिला है, मुझे उसी का उपयोग करना चाहिए । इस उक्ति
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