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जीवन का रहस्य
तक उसके लक्ष्य का प्रश्न है, उसका लक्ष्य भी वही है, जो साध के जीवन का है । इसी आधार पर जैन संस्कृति में गृहस्थ को श्रमणोपासक कहा जाता है । इसका अर्थ है-श्रमण की उपासना करने वाला । साधु-जीवन के पथ का अनुसरण करने वाला । दोनों के जीवन का एक ही लक्ष्य है, राग और द्वेष को जीतना । कौन कितनी मात्रा में राग द्वेष को जीतता है, यह उसके आत्म-विकास और आत्म-शक्ति पर निर्भर है । परन्तु राग और द्वेष के विकल्पों को कम करते जाना, दूर करते जाना ही साधक जीवन का एक मात्र ध्येय हो सकता है ।
साधक जब साधना के मार्ग पर अग्रसर होता है, तब उसे मार्ग में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । वह जिस मार्ग पर चल रहा है, उस मार्ग पर निरन्तर प्रगति करते रहना ही उसके जीवन का एक मात्र उद्देश्य होना चाहिए । मैं समझता हूँ, कि जीवन में ममता, आसक्ति और तृष्णा कदम-कदम पर साधक के मन को पकड़ती है । पुण्य और पाप की समस्याएँ भी उसके सामने आकर खड़ी होती हैं । परिग्रह का बन्धन भी उसे चारों ओर से जकड़ने का प्रयत्न करता है । इन सब बाधाओं को दूर करके लक्ष्य पर पहुँचने की शक्ति जिसमें नहीं है, वह अपने जीवन का सम्यक् विकास और निर्मल उत्थान नहीं कर सकता । संसार की प्रत्येक क्रिया में पुण्य भी हो सकता है और पाप भी हो सकता है । प्रथम पाप क्रियाओं से और अनन्तः पुण्य क्रियाओं से विमुक्त होना ही, साधक के जीवन का संलक्ष्य है । यदि जीवन में समभाव की लहर नहीं उठती है, तो उसका जीवन किसी भी प्रकार से संभल नहीं सकता । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । उसका जन्म समाज में होता है, उसका पालन-पोषण समाज में होता है और अन्त में उसका मार्ग भी समाज के वातावरण में ही होता है । उसके संसार त्याग का अर्थ यह नहीं है, कि उसने समाज को छोड़ दिया है । समाज को छोड़ना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है । संसार की आसक्ति का परित्याग ही संसार का परित्याग है । संसार और मोक्ष क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि जितने अंशों में कषाय भाव क्षीण होगा, उतने अंशों में आप मुक्ति के समीप होंगे । यदि कषाय भाव प्रबल है, तो आप मुक्ति से दूर होंगे और संसार के समीप होंगे । यदि आप घर छोड़कर जंगल में चले गये, इतने मात्र से क्या होता है ? यदि आपने काम, क्रोध और लोभ को नहीं छोड़ा है, तो कुछ भी नहीं छोड़ा है । जब तक
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