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मानव जीवन की सफलता
मिला वह तो पुण्योदय से मिला और रावण को जो मनुष्य-जीवन मिला था, वह पाप के उदय से मिला था, क्योंकि शास्त्रकारों ने मनुष्य-मात्र के जीवन को पुण्य का फल बतलाया है । इस दृष्टि से राम और रावण के मनुष्य-जीवन में स्वरूपतः किसी प्रकार का भेद नहीं है, भेद है केवल उसके उपयोग का, उसके प्रयोग का । राम ने अपने मनुष्य जीवन को लोक-कल्याण में एवं जनहित में व्यतीत किया था । इसी आधार पर राम का जीवन कोटि-कोटि जन-पूजित हो गया । रावण ने अपने जीवन का उपयोग एवं प्रयोग वासना की पूर्ति में किया था, लोक के अमंगल के लिए किया था, इसी आधार पर रावण का जीवन कोटि-कोटि जन-गर्हित हो गया । इसी प्रकार चाहे कृष्ण का जीवन हो अथवा कंस का जीवन हो, जहाँ तक जीवन, जीवन है, उसमें किसी प्रकार का विभेद नहीं होता । किन्तु कृष्ण ने अपने जीवन का प्रयोग जिस पद्धति से किया था, उससे वे पुरुषोत्तम हो गए और कंस ने जिस पद्धति से अपने जीवन का प्रयोग किया, उससे वह निन्दित बन गया । मनुष्य जीवन की सफलता और सार्थकता, उसके जन्म पर नहीं, बल्कि इस बात पर है, कि किस मनुष्य ने अपने जीवन का प्रयोग कैसे किया है ? __सन्त तुलसीदास ने अपने 'रामचरितमानस' में कहा है—'बड़े भाग मानुस तन पावा ।' बड़े भाग्य से नर-तंन मिलता है । जो नर-तन इतनी कठिनता से उपलब्ध होता है, वह कितना अधिक मूल्यवान है, इसका पता प्राचीन साहित्य के अध्ययन से भली-भाँति लग सकता है । 'भागवत' में व्यासजी ने कहा है कि मानव-जीवन समस्त जीवनों में श्रेष्ठ हैं । यही सृष्टि का गूढ़तम रहस्य है । मनुष्य जीवन से बढ़कर अन्य कोई जीवन नहीं हो सकता । वैदिक, जैन और बौद्ध-भारत की इन तीनों परम्पराओं में मानव-जीवन को सर्वश्रेष्ठ और सर्व-ज्येष्ठ कहा गया है । एक कवि ने कहा है
“नर का शरीर पुण्य से पाया कभी-कभी ।
कंगाल के घर बादशाह आया कभी-कभी ।" इस कवि ने अपने इस पद्य में यह कहा है, कि मनुष्य का शरीर पुण्य से प्राप्त होता है, परन्तु सदा नहीं, कभी-कभी प्राप्त होता है । यह बात नहीं है, कि हर घड़ी और हर वक्त यह मिलता हो । किसी कंगाल के घर पर बादशाह का आना सम्भव नहीं है, फिर भी कदाचित्, किसी
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