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विकल्प से विमुक्ति
था । उसके बाप दादाओं की सम्पत्ति भी प्रचुर मात्रा में उसके पास थी, और उसने स्वयं भी खूब धन कमाया था, उसके पास भौतिक वैभव के रूप में सब कुछ होने पर भी वह सुखी न था । बात यह थी, कि उपभोग की वस्तु तो उसके पास बहुत थी, किन्तु उनका उपभोक्ता घर में कोई न था । इतनी बड़ी सम्पत्ति होते हुए भी सेठ के कोई लड़का नहीं था । आखिरकार बुढ़ापे में आते-आते सन्तान के दर्शन हुए, पुत्र मिला । पुत्र तो मिल गया, किन्तु बढ़ते हुए बुढ़ापे के कारण स्वयं रोगों से आक्रान्त हो गया । मन में उसके बड़ी वेदना रहने लगी । विचार करता था, कि पुत्र मिलने की खुशी भी न मना सका और अब संसार से विदा होने का समय आ गया है । भाग्य की बात है, कि कुछ काल बाद ही सेठ का देहान्त हो गया और उसके कुछ दिनों बात ही सेठानी का भी देहान्त हो गया । अब घर में क्या बचा ? विशाल सम्पत्ति, सुख के प्रचुर साधन और उनका उपभोक्ता वह पुत्र रत्न । आप समझते हैं, कि धनवान व्यक्ति के सम्बन्धी, भले ही वे कितनी दूर के ही क्यों न हों, किन्तु निकटतम के बन जाते हैं । दरिद्र व्यक्ति के निकट के सम्बन्धी भी दूर के हो जाते हैं । सेठ और सेठानी के स्वर्गवास के बाद सब सम्बन्धी एकत्रित हुए और परस्पर विचार करने लगे, कि सेठ के पुत्र का लालन-पालन किस प्रकार किया जाए ? सब रिश्तेदार अपने आपको सेठ का निकटतम सम्बन्धी बताने का प्रयत्न कर रहे थे । पुत्र ने भी सोचा, माँ - बाप मर गये तो क्या, मेरी देख-भाल करने वाले और बहुत से माँ-बाप पैदा हो गये हैं । सेठ का वह पुत्र खूब धन खर्च करने लगा और खुले हाथों लुटाने लगा । घर की लक्ष्मी के साथ वह खुलकर खेला । यह तो आप जानते ही हैं, कि सबके दिन समान नहीं रहते, भाग्य - चक्र को घूमते देर ही क्या लगती है । उस विशाल सम्पत्ति को कुछ तो सेठ के पुत्र ने बरबाद कर दिया और कुछ रिश्तेदारों ने छीना-झपटी कर ली । अब स्थिति यह हो गई, कि धीरे-धीरे सब रिश्तेदार खिसकने लगे । घर में रह गया अकेला सेठ का पुत्र । घर तो वही रहा, किन्तु उस घर की चमक-दमक सब समाप्त हो गई । उस सूने घर में सेठ का पुत्र अकेला पड़ा रहता, घर वही था, किन्तु धन के अभाव में सब स्थिति बदल चुकी थीं । अब सेठ का पुत्र रात और दिन इसी चिन्ता में लगा रहता था कि यह जीवन अब कैसे चलेगा ? यह जीवन अब कैसे अपने को इस संसार में स्थिर रख सकेगा ? सेठ के पुत्र
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