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जीवन का रहस्य
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गुण है, ज्ञान आत्मा का गुण है, उसी प्रकार चारित्र भी आत्मा का गुण है । चारित्र आत्मा का एक वह गुण है, जिसे इन्द्रियाँ ग्रहण कर नहीं सकतीं और मन भी जिसे पकड़ नहीं सकता । मैंने आपसे अभी कहा था, कि जो पदार्थ स्वयं अमूर्त है, उसका गुण भी अमूर्त ही होगा । यह कभी नहीं हो सकता, कि गुणी स्वयं तो अमूर्त रहे और उसका गुण मूर्त बन जाए । आत्मा जब स्वयं अमूर्त है, तो उसके अनन्त गुण भी अमूर्त ही हैं । कुछ विचारक हैं, जो आत्मा के दर्शन एवं ज्ञान आदि गुणों को तो अमूर्त मानते हैं, किन्तु चारित्र को वे मूर्त कहते हैं । केवल इस आधार पर, कि वह क्रियात्मक होता है, किन्तु क्रियात्मक होने मात्र से ही कोई वस्तु मूर्त नहीं बन जाती है । चारित्र भी जब आत्मा का गुण है, तब वह मूर्त कैसे हो सकता है ? आत्मा का गुण भी कहना और मूर्त भी कहना, यह तर्क संगत नहीं है । ___ मैं समझता हूँ, मेरा अभिप्राय आपने समझ लिया होगा, साथ में आपने यह भी समझा होगा, कि संयम और चारित्र का क्या स्वरूप है ? यह आत्मा का निज गुण है, अतः इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आ सकता । चारित्र अनुभूति का विषय है, क्योंकि वह आत्म-रूप है । मैंने आपसे अभी यह कहा था, कि हमारे जीवन के दो रूप है-एक बाह्य और दूसरा अन्तरंग । बाह्य रूप क्रिया - काण्ड है, इसलिए वह दिखलाई पड़ता है । धर्म के उपकरण पुद्गलमय हैं, इसलिए उन्हें इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किया जा सकता है । बाह्य साधन अन्तरंग को जानने में निमित्त बनता है, यह सत्य होते हुए भी, यह नहीं कहा जा सकता, कि बाह्य रूप ही अन्तरंग रूप बन जाता है । द्रव्य चारित्र, भाव-चारित्र का साधन है, किन्तु अध्यात्म साधना का साध्य एक मात्र भाव-चारित्र ही है । संयम और चारित्र क्या है ? इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है, कि आत्मा का जो अन्तर्मुख रहने का स्वभाव है, वस्तुतः वही संयम एवं चारित्र है । स्वयं का स्वयं में रमण करना, यही भाव-चारित्र है । अपने आप में तन्मय हो जाना, स्वयं का स्वयं में लीन हो जाना, निज का निज में रमण करना अध्यात्म-दृष्टि से यही संयम है और यही चारित्र है । आत्मा की अन्तर्मुखी अवस्था ही संयम है, क्योंकि इसमें विषयाभिमुखी इन्द्रियों को समेट कर और विषयाभिमुखी मन का निरोध करके, स्व स्वरूप की उपलब्धि का प्रयत्न किया जाता है । स्व स्वरूप की उपलब्धि का प्रयत्न ही, चारित्र एवं संयम है । वस्तुतः राग और
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