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समाज और संस्कृति
के कँटीले पथ पर अपने कोमल चरण रखे । रावण के यहाँ स्वर्ण लंका में भी वैभव की क्या कमी थी ? रावण स्वयं भी अपने युग का एक अति सुन्दर राजा था । यदि सीता का प्रेम भोग-मूलक ही होता, तो व्यर्थ ही वह क्यों संघर्ष करती ? और क्यों राम के लिए कष्ट झेलती ? सत्य हरिश्चन्द्र और महारानी तारा के जीवन की गाथा भी हमें इसी निष्कर्ष पर पहुँचाती है । जहाँ शुभ राग, प्रशस्त राग एवं पवित्र प्रेम होता है, वहाँ पर दुःख भी सुख बन जाता है ? प्रतिकूलता भी अनुकूलता बन जाती है और असुविधा भी सुविधा बन जाती है । राजा हरिश्चन्द्र के अपने समग्र राज को दान कर देने पर जो कुछ महारानी तारा ने कहा, उसमें भारत की संस्कृति का मूल स्वर झंकृत होता है । महारानी सीता और तारा ने इसी तरंग में कभी कहा था-"नाथ ! मेरा राज्य वही है, जहाँ आप रहते हैं । आपकी सेवा में रहकर विकट वन भी मेरे लिए सुखद साम्राज्य है और आपके अभाव में यह विशाल अयोध्या राज्य भी मेरे लिए शून्य वन है ।" निःसन्देह पति और पत्नी का यह अद्वैत भाव ही उसकी पवित्रता का, प्रशस्तता का और उसकी शुभता का एक मात्र आधार है, एक मात्र आश्रय है और एक मात्र अवलम्बन है ।
मैं आपसे प्रशस्त राग और शुभ राग की चर्चा कर रहा था । राग शुभ भी हो सकता है और अशुभ भी हो सकता है । राग प्रशस्त भी हो सकता है और अप्रशस्त भी हो सकता है, परन्तु राग कभी भी शुद्ध नहीं हो सकता । संसार के जितने भी रागात्मक सम्बन्ध हैं, उनमें शुभ या अशुभ राग ही हो सकता है, किन्तु शुद्ध राग नहीं हो सकता । माता और पुत्री में तथा पिता और पुत्र में, जिस पवित्र प्रेम की परिकल्पना की गई है, उसे भी सेवा भावना के रूप में शुभ कहा जा सकता है, किन्तु शुद्ध नहीं कहा जा सकता । इसी आधार पर मैं आपसे कह रहा था, कि राग के दो ही रूप होते हैं. शुभ और अशुभ । राग कभी शुद्ध नहीं होता, क्योंकि राग बन्ध का कारण होता है, यदि शुभ राग है, तो वह भी बन्ध का कारण है और यदि अशुभ राग है, तो वह भी बन्ध का कारण है । शुभ और अशुभ दोनों अवस्थाओं में ही आत्मा का बन्ध होता है, किन्तु जहाँ शुद्ध अवस्था है वहाँ बन्ध नहीं होता । जहाँ शुद्ध अवस्था होती है, वहाँ कर्मों का बन्ध नहीं होता, बल्कि निर्जरा होती है । मैं आपसे मोह की बात कह रहा था । मोह शुभ हो सकता है,
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